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Friday, September 7, 2012

AANDOLAN


जो यंत्र घिस गया है उस यंत्र को बदल दो !
                           जो भ्रस्ट हो गया है उस तंत्र को बदल दो !!

धरती का कोई भी भू-भाग एक या दो महान पुत्रों को जन्म देने पर गर्व तो कर सकती है पर वह देश ही महान होने की श्रेणी में गौरव पा सकता है जिसके आम जनों तथा सम्पूर्ण जनतंत्र का जीवन-स्तर जिसका बच्चा-बच्चा शिक्षित, पूरा समाज स्वस्थ और सम्पूर्ण राष्ट्र समृद्ध हो तथा देश के आर्थिक उन्नति-प्रगति में निमग्न हो !!  

सर्वप्रथम मैं आपलोगों को अपनी शुभकामना और बधाई देना चाहूँगा कि अपनों के छल-कपट से पल-पल मरते-छीजते भारतवर्ष को जगाने और उठाने की आपलोगों ने  जो अनथक कठिन परिश्रम किया है वह भारतवर्ष के एक अरब पच्चीस कड़ोड़ जनता के मन में एक आशा और विश्वास से भर दिया है, अपने देश के प्रति श्रद्धा से अवश्य भर दिया है कि भारत माता कि कोख में बहुतेरे लाल हैं जो उसकी रखवाली के लिए अपनी प्राणों की भी बाजी लगा कर माँ के गौरवशाली प्रतिष्ठा पर कभी आंच नहीं आने देगा ! एक बार पुनः पुनः आप सभी को मेरी लाख-लाख बधाईयाँ !!

परन्तु दैत्यों-राक्षसों-पापियों से लड़ना और जीतने से पहले विखर जाना उन बहादुर योद्धाओं के लिए नहीं होता जो मातृभूमि की रक्षा में उठ खड़े होते हैं. गीता प्रवचन में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं अपने श्रीमुख से अर्जुन को कहा है " तीन प्रकार के मनुष्य स्वयं ही मेरी शरण को प्राप्त करते हैं ; एक तो वे जिनका हाथ मैं स्वयं पकड़ लेता हूँ ; दूसरा वह जो मेरे सिवा धरती पर अन्यथा कुछ नहीं जानता मेरी भक्ति करता हुआ मात्र मुझे ही जपता है ; तीसरा वह जो मातृभूमि की रक्षा में अडिग बलिदान करने का प्रण कर लेता है !" फिर भी श्री कृष्ण ने अर्जुन तथा पांडवों को रणक्षेत्र में विजय प्राप्त करने के लिए अंतिम सफलता तक राजनीति और कूटनीति का पाठ पढ़ाते रहे ताकि भारतभूमि से पापियों का नाश हो सके भारत निष्कलंकित हो सके ! आज यह बात फिर महत्वपूर्ण हो उठा है क्योंकि दुश्मन से लड़ना और अपनों से संघर्ष करना दो अलग-अलग रणनीति पर निर्भर करता है, एक तरफ आप सभी राजनीति और कूटनीति के अनुभव रिक्त योद्धा हैं तो सामने कंस और रावण सरीखे राजनितिक युद्ध कौशल के पारंगत पापी दैत्य-दानव है जिन्होंने अपने ही देशवासियों को पीड़ा, कष्ट और उत्पीडन से पीड़ित कर स्वयं पर दम्भित हो राज्य-सत्ता का अपहरण कर रखा है. 

इन राजनीति के धुरंधरों का राजनितिक कौशल और षड्यंत्र ही है कि ये बड़ी आसानी से भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना आन्दोलन के सम्पूर्ण नेतृत्व को तॉप के तोपची की भूमिका से भटकाकर तॉप के सामने ला खड़ा कर दिया है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारतवर्ष की हुंकार को भांप कर इनकी चाल आन्दोलन की धार को कुंद करने की हो गयी. संसद और राजनीति की चुनौती देकर राजनितिक प्रतिद्वंदिता और प्रतिस्पर्धा में उतार दिया है इसे समझना होगा ? राजनीति की कुटिल योजना के तहत इनलोगों ने आन्दोलन की धार को मार्ग से भटकाने का काम किया है. राजनितिक विकल्प के प्रति आन्दोलनकारियों को उकसाकर राजनितिक भेड़-चाल में शामिल कर इनलोगों ने अपने विरुद्ध उठ रही भारत की ज्वाला को शांत करने की कुटनीतिक सफलता प्राप्त कर लिया है. सभी राजनितिक दलों ने अपने विपरीत भारतीय जनता को पाकर राजनीति की शातिर चाल से अन्ना-आन्दोलनकारी शक्तियों के आग में पानी तो अवश्य ही डाल दिया है, आन्दोलन के लपलपाते मशाल को अवश्य बुझा दिया है. इनके इन षड्यंत्रों का सिंहावलोकन करना होगा, आन्दोलन का सूक्ष्म विश्लेषण कर इसे पुनर्जीवित करना होगा ; आन्दोलन की आग को जलाए रखना होगा , इसकी उग्रता-उष्णता पर ही लक्ष्य निर्धारित होगा, सिंह की गर्जना से भ्रष्टाचारियों की नींद को फिर से उड़ाना होगा, ज्वाज्ल्य्मान आन्दोलन की तपिश को सम्पूर्ण भारतवर्ष के गाँव-गाँव और चौपाल-चौपाल तक, सुदूर देहात तक, आम आदमी तक, एक-एक आदमी तक, गरीबों की झोपड़ियों तक, किसानों के मचानों तक फैलाना होगा और तब तक विश्राम नहीं जबतक लक्ष्य की प्राप्ति न हो ; लक्ष्य निर्धारित कर नगारे की तुमुल ध्वनि से सत्ता पर काबिज कुटिल-कलुषित लोगों में कम्पन पैदा करना होगा ! राजनितिक विकल्प बनाने की हड़बड़ी और भटकाव से अभी बचते हुए इनके कुटनीतिक चाल के मकड़-जाल में फंसना नहीं होगा : अभी आन्दोलन की असामयिक पड़ाव से बचना होगा. राष्ट्रिय अग्नि-मन्त्र से अभिमंत्रित साहस के साथ आन्दोलन के अंतिम लक्ष्य को पाना होगा, आन्दोलन अभी शैशवावस्था की है इसे हृष्ट-पुष्ट करना होगा, मजबूत बनाना होगा, लोहे की पुट्ठों के साथ इस्पात के स्नायु विकसित कर अन्नंत उत्साह, अन्नंत शक्ति, अन्नंत धैर्य और अन्नंत विश्वास से आन्दोलन के अलख को जगाये रखना होगा ! सम्पूर्ण भारतवर्ष के जय-घोष पर आन्दोलन की चरम परिणति सर्वग्राह्य राजनितिक विकल्प बनाने में होगी जिसके लिए किये जा रहे सार्थक परिश्रम की आग में अभी और आहुति डालने की आवश्यकता है !

जागो भारत जागो, जागो भारत की सिंह-गर्जना से सम्पूर्ण भारत के आकाश को घोषित जनक्षेत्र  में परिवर्तित कर देना होगा ! देश में चल रहे अनेकानेक ज्वलंत समस्याओं के विरुद्ध अनेकानेक जन-आन्दोलनों को एक मंच पर लाना होगा, सारे आन्दोलनों को सामूहिक नेतृत्व के साथ भ्रष्टाचार के विरुद्ध केन्द्रित लक्ष्य निर्धारित कर आन्दोलन की चरम परिणति से सुदृढ़ राजनितिक विकल्प तैयार कर भारत का पुनर्निर्माण-नवनिर्माण करना होगा ; अभेद्य जन-क्रांति की सिंहनाद की दुन्दुभी से भारत के आकाश को हलचल कर देने का तत्काल एकमात्र लक्ष्य ही अभी निर्धारित करना प्राथमिक होगा, भारत के सुदूर देहात और ग्रामीण अंचल अभी पूर्ण रूप में आपके आन्दोलन के हितार्थ से परिचित नहीं उनके भ्रमित होने से रोककर क्रांति से जोड़ना होगा : इसके सिवा अभी कुछ भी नहीं कोई विश्राम नहीं कोई भटकन नहीं जबतक कि भारत की हुंकार से पापियों-दुष्टों की नींद न उड़ जाए, इनके खूरेंजी चंगुल से भारत स्वाधीन न हो जाये !! 

पूर्वजों के आशीर्वचनों का स्मरण कर माँ भारती के नाम की, के नव-निर्माण की शांतिपूर्वक घोषणा कर देना होगा कि राष्ट्रिय भारत निकल पड़े खेतों-खलिहानों और मेड़ो से या कि निकले पगडंडियों से, निकल पड़े कि हलवाहे के हल से, कि निकले किसानों के मचानों से, नवीन भारत निकल पड़े कि झाड़-झंखाड़ों-पेड़ों और पहाड़ों से, निकल पड़े कि नदियों और तालाबों से,  नूतन भारत निकल पड़े कि तिरष्कृत और दलितों की झोपड़ियों से, कि निकल पड़े हंसिये और कुदालों से, निकले चाहे भारत दर्जी के मशीनों से कि लोहारों की भाथियों से, निकले चाहे कि नया भारत कल-कारखानों से कि निकले चाहे हलवाईयों की मिठाइयों से या कि आइसक्रीम पार्लरों से, निकले चाहे कि नाई की हजामत से या कि तो जूतों की दुकानों से, नूतन-नवीन भारत निकले आई० टी० पार्कों से या कि मालों और काम्प्लेक्सों से, निकले युवा भारत कि स्चूलों और कालेजों से, कि निकले संतों-कवियों की कुटियों से, तो निकले लेकिन निकले नवजागरण का लेकर सन्देश सभी खाकर शपथ-मन्त्र  भारतीय राष्ट्र के नवनिर्मानों का !


अतएव, सभी भावी देशभक्तों, भावी देशप्रेमियों, भारत की भावी नव-निर्माणकारी शक्तियों को एकत्र होकर इर्ष्या-विद्वेष का त्याग कर अनुभव करना होगा, क्या हम अनुभव करते हैं कि देवता और ऋषियों की कड़ोड़ के कड़ोड़ संतानें आज फिर पशु-तुल्य हो रही है ? क्या हम ह्रदय से यह अनुभव करतें हैं कि भारतवर्ष में कड़ोड़ के कड़ोड़ आदमी भूखों मर रहे हैं और लाखों-कडोदों लोग शताब्दियों से ऐसे मरते आ रहे हैं ? कडोदो-कड़ोड़ युवक-युवतियां रोजगार की प्रतिस्पर्धात्मक प्रतिद्वंदिता के चक्रव्यूह में फंस कर अपनी कभी हल न होने वाली व्यथा से छटपटा रहे हैं. आवश्यकता से कहीं अधिक अन्न उपजाने के बाद भी हम भूखे हैं महंगाई की मार से बेचैन हैं, धन की जमाखोरी चरम पर है, पैसों की कालाबाजारी चरम पर है, राज्यकोष का लूट है-बंदरबांट है, कालाधन विदेशी बैंकों की शोभा बढ़ा रही है, हमारा काला-धन विदेशों में विकास कर रही है , दलितों की झोपड़ियाँ अन्धकार में है, बेसहारों के तन पर धोती नहीं है, अशिक्षित- तिरस्कृतों का जीवन नारकीय बना हुआ है,  फिर भी उन्माद है_शोषक और सामंतों का , अट्टहास है दिन-दिन बढती महंगी अर्थ व्यवस्था पर ; हास्य है उन रहनुमाओं का दलितों की झोपड़ियों को जानने की ; तो कौतुक है योजनाकारों का श्रमिकों को बत्तीस रूपये की पारिश्रमिक मिलने की ; संतुष्टि है सामंती नेतृत्वों को उन कराहते-पीड़ित मानवता पर_ तो तो क्या हम कभी अनुभव करते हैं कि अज्ञानता के काले बादलों ने पुरे भारतवर्ष को एक बार पुनः ढँक लिया है ? इन सबका अनावरण करना होगा हमारे भोले निरक्षर बेसहारे दुखी पीड़ित देशवाशियों को कि उनके साथ क्या-क्या हो रहा है ! क्या यह सब सोच कर हम कभी बेचैन होते है ? क्या यह भावना हमें कभी निद्राहीन करती है ? क्या यह भावना कभी हमारे रक्त के साथ मिलकर हमारी धमनियों में बहती है ? क्या यह कभी हमारे दिल की धड़कन बनती है ? क्या यह कभी हमें पागल बनाता है ? क्या कभी देश कि इतनी दुर्दशा हमारे चिंता का कारण बनी है ? और क्या हम इस चिंता की आत्मानुभूति कर अपने-पराये, अपना नाम-यश, पुत्र-परिवार, धन-सम्पति, यहाँ तक कि अपने शरीर तक की सुध को विसार दिया है ? यदि अब हम इस आत्मानुभूति का अन्तःस्थल से अनुभव करते है तो ही हम देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रख लक्ष्य को पाने का दावा कर सकते है -- हाँ, केवल पहली सीढ़ी होगा यह !  

यह यहाँ और भी महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र ने १९७४-७७ के उस सम्पूर्ण-क्रांति की राजनितिक असफलता को देखा-झेला है जिसका नेतृत्व एक अनुभवी राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी श्री जय प्रकाश नारायण की अगुवाई में हुआ था. हम आपातकाल की दानवी अत्याचार के साथ-साथ शोषण-दमन-उत्पीडन को तो डायीलिसिस के मृत्यु-शैया पर अंतिम सांस लेता हुआ उस अनुभवी कृशकाय बृध हाथ को भ्रस्ताचार के विरुद्ध उठ खडा होते हुए तो अवश्य देखा है फिर देश के युवा शक्ति के समस्त साहस और जोश को भी लगा कर उस लोकनायक की परिपक्व, संघर्षशील और अनुभवी नेतृत्व के कारण आन्दोलन के लक्ष्य को पाने तक झेल गए थे जब हमारे मौलिक अधिकार तक को शासन-सत्ता ने बंधक बना रखा था, फिर भी हम पूर्ण रूपेण असफल ही हुए थे ; उस क्रांति की फलाफल देश को प्रदान करने में हम असमर्थ हुए थे ! आज जे० पी० के सभी अग्रणी अनुयायी सत्ता पाते ही भ्रस्ताचारी हो कर सी० बी० आई० की घेरे में रहते हुए भी राज्य-सत्ता से अनैतिक कवच पाकर देश की राजनीति के धुरंधर पुरोधा और जाबांज शासक बने बैठे हैं .

हम पल-पल सड़ते-गलते स्वाधीनता के अग्रणी दल को भी देख रहे है जिसकी अगुआई महात्मा गांधी ने किया था अपना नेतृत्व देकर, स्वतंत्र भारत के लिए सफलता की सीढ़ी को पार किया था. पिछले पैंसठ वर्षों में अधिकाँश समय से वह दल ही राज्य सत्ता पर अपना अधिकार सिर्फ इस लिए रख सका है सका है क्योंकि गाँधी ने इसे सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ा कर परिपक्व करने का असफल प्रयास किया था ताकि भारत को एक लोकतान्त्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष स्वाधीनता प्राप्त हो सके. परन्तु हुआ उसका उल्टा ही यह दल आज इस देश का सबसे बड़ा अनाचारी-व्यभिचारी-अत्याचारी शोषक समूह बना बैठा है जो वंशवाद, निरंकुशता और सामंतवाद का पालक पोषक बनकर राज्य-सत्ता का अपहरण कर पूर्ण रूपेण भ्रस्ट हो सत्ता-सुख भोग रहा है. 

फिर हमने अनेकानेक अन्य आन्दोलनों को भी भ्रस्ट, अत्याचारी और बेईमान होते भी देखा है ; समाजवादी आन्दोलन, साम्यवादी आन्दोलन, सर्वहारा की क्रांति और लाल सलाम के अंतिम आदमी के लिए रक्त-रंजित आन्दोलन से लेकर अनेकानेक स्थानीय-क्षेत्रीय-प्रांतीय   -प्रादेशिक क्रांति को भी देखा-झेला है. क्रांति और आन्दोलनों की आग से निकले लोग आज राजनीति को बंधक बनाए रखने के ठेकेदार हो गए हैं, आन्दोलनों और क्रांति से निकले तपे-तपाये लोग भी राज्य-सत्ता के सिंहासन पर पहुँचते ही भ्रस्ट हो गए, बेईमान हो गए, वंशवादी हो गए, सामंती हो गए और निरंकुश सत्ता-सुख भोगने में लिप्त होकर जनता-जनतंत्र को भूल गए. कारण क्या है मूल में जाना होगा, जड़ तक अन्वेषण करना होगा, फिर भेदना होगा उस कवच-कुंडल को जो आततायिओं, अनाचारियों, व्यभिचारियों, भ्रष्ट, बेईमान, क्रूर, हिंसक और अधिनायकवादी राज्य-सत्ता और शासन-पद्धति को स्वाधीनता के बाद भी फलने-फूलने का अवसर तो प्रदान करती ही है साथ में अनेक स्तरों पर सुविधा-सुरक्षा-संरक्षा का कवच भी प्रदान करती चली आ रही है, प्रजातंत्र के असंवैधानिक, अनैतिक और अमानवीय स्तर पर जघन्य कृत्यों को वैधानिक आवरण प्रदान कर बचाती रही है. विश्व के सबसे बड़े भारतीय-लोकतंत्र को प्रदूषित कर घोर दुर्गंधों से भर दिया है. 

अनैतिक और असंवैधानिक कृत्यों को विधि-व्यवस्था में दोष होने के कारण ही इन जघन्य कार्यों को प्रोत्साहन तो मिलता ही है जहाँ दोष के मुख्य कारण है विधि-नियम-अधिनियम तथा इसके धारा-उपधाराओं का प्रजातान्त्रिक नहीं होना है , आज देश भर में अनैतिक और अपराध एक संगठनात्मक स्वरुप में विकसित हो गया है, झूठ-चोरी-बेईमानी-गबन-घपले-घोटाले और लूट-हत्या-हिंसा-बलात्कार करना सामूहिक और सांगठनिक हो गया है. सभ्यता के शिखर पर पहुँच कर भी देश का राजनितिक नेतृत्व मनुष्य से मानव और फिर दानव बन गए हैं 1 वैसे तो सत्य-झूठ, हिंसा-अहिंसा, नैतिक-अनैतिक अथवा भ्रस्ताचार-व्यभिचार के समीचीन पाठ हमारे देश में तो माता के गर्भ से ही माता-पिता-परिवार, शिक्षक-गुरु-संत, समाज-राज्य-धर्म और विधि-विधान के द्वारा सिखाया जाने लगता है फिर संत-समागम-प्रवचन के परोपकारी उपदेश को हम बचपन में ही जान जाते हैं फिर भी आज पूरा का पूरा भारत वर्ष लगता है अनैतिक और जघन्य कार्यों को करने में ही सुख पाता है. जितने भी सरकारी या गैर सरकारी धनी अथवा प्रतिष्ठित व्यक्ति-समूह-संगठन है वह उतने ही काले कारनामों से प्रसिद्धी पाने की कोशिश करता हुआ दीखता है, बिना कोई मेहनत-परिश्रम किये ही बैठे-बैठे ये लोग अपार धन के स्वामी बने बैठे हैं, प्रतिष्ठा इनके कदम चूम रही है पर क्यों .... ??

पर क्यों ? क्यों मेहनत-मजदूरी-परिश्रम करने वालों के तन पर कोई कपडा नहीं, थाली में रोटी नहीं है, सर पर फूस की छाया भी नहीं यहाँ तक कि रात को रौशनी भी मयस्सर नहीं, शिक्षा नहीं, स्वास्थ्य नहीं, रोजी नहीं, रोजगार नहीं अभाव ही अभाव, कष्ट ही कष्ट, पीड़ा ही पीड़ा झेलकर ये लोग अकारण ही काल कवलित हो जाते हैं ? कैसी बिडम्बना है यह, स्वाधीन भारत का कैसा सपना है यह, कैसी आर्थिक स्वतंत्रता है, यह कैसी आर्थिक विषमताओं ने राष्ट्र को बाँट रखा है एक तरफ गगनचुम्बी सम्पतियों के स्वामी की अठखेलियाँ, अट्टहास, अय्याशियों में तार-तार होती इज्जत-आबरू दूसरी तरफ अभाव से तार-तार होता सारा मानव जीवन ! कहाँ है भारत के इंडिया का चरित्र, कहाँ है भारत की करुणा-दया ? पल पल मरते मानव जीवन के लिए कोई प्रयास नहीं, कोई सत्य वचन का पाठ याद नहीं, कोई सत्संग का प्रवचन नहीं ; है तो सिर्फ इतना है _ है सिर्फ प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता और होड़ असीमित धन पाने का और इक्कठा करने का फिर सबसे बड़े धन का स्वामी होने का कोई उचित-अनुचित का ध्यान नहीं ; कोई नैतिक-अनैतिक का ज्ञान नहीं ; कोई कानूनी-गैरकानूनी का भान नहीं सब के सब इंडियन बन इस अंधी दौड़ में शामिल हैं कि भारत का सारा धन-सम्पतिऔर सत्ता मेरी हो जाये !   

पर क्यों ? पर इस क्यों का उत्तर हमें खोजना है ! हमें तह तक जाकर तलाश करना है इस क्यों का ! खोज को केन्द्रित करना होगा उस दोष का जो रोग के मूल में है, नित्य निरंतर पतन के मुख्य कारक पर ध्यान देना होगा ! आन्दोलनों और क्रांति से निकले लोग भी सत्ता पाते ही  मदांध हो भ्रस्ट और बेईमान, अनाचारी और ऐय्याश, क्रूर और हिंसक तथा खूनी और बलात्कारी क्यों हो जाते हैं ? शासन-सत्ता पर पहुँचते ही संवेदनशील नेतृत्व भी क्यों इस गंदगी का शिकार हो शोषण-दमन-उत्पीडन पर उतारू हो जाते हैं ? क्यों गणतंत्र के समर्पित पुरुषार्थ भी शासन-तंत्र का अंग बनते ही जनता से वादाखिलाफी कर सामंतवादी, अधिनायकवादी और वंशवादी हो प्रजातंत्र से धोखा कर जाते है ? इस क्यों का हमें तथ्यात्मक विश्लेषण और अन्वेषण कर निदान करना होगा जो इस रोग के मूल में है !

तो निश्चय ही हमें लगता है कि हमने राजनितिक स्वतंत्रता-स्वाधीनता तो पा लिया है पर हम विदेशी तंत्र के आकर्षण को अब-तक पाले-पोशे रखे हैं, उस विदेशी शासन व्यवस्था को ही प्रजातंत्र का आधार मान लिया है 1 स्वाधीनता के बाद भी हमने अपना स्वहित स्वेदेशी लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को रचने-गढ़ने में नाकाम रहे हैं 1 हमने अनेकानेक पश्चिमी देशों के निति-नियम-अधिनियम, कानूनी धारा-उपधाराओं को ही अंगीकार कर अपने प्रशासन-तंत्र का आधार बना लिया साथ ही साथ स्वाधीनतापूर्व विदेशियों अथवा अंग्रेजो के शासन-तंत्र को ही अपने लोकतान्त्रिक शासन-प्रणाली के लिए हुबहू अधिनियमित कर लिया 1 स्वाधीनता के पैंसठ वर्षों के बाद भी हम विदेशी  नियम-कानून  और  निति-पद्धति  को  स्थानापन्न  करने  में समर्थ  नहीं  हो  सके हैं 1 हमे  स्वतंत्र  हुए पैंसठ  वर्ष  बीत  गए  परन्तु  आज  भी  हम  1730-1800 / 34 / 37 / 50/56  की  अंग्रेजों  के  बनाए नियम-कानूनों  को  ही अपने  कानून  का  आधार  बनाये  हुए  है .

स्वतंत्र भारत में भी हम उन्हीं विदेशी निति -नियम, कानून -काएदे पर आधारित संविधान-व्यवस्था को अपनाने पर बाध्य हो कर रह गए जिसे उसी समय भारतीय  लोकतान्त्रिक प्रशासन-तंत्र में विकसित कर विदेशी शासन व्यवस्था को परिवर्तित कर देना था, परन्तु हम अच्छे नियम होने के नाम पर विदेशी नियम-अधिनियम, धारा-उपधाराओं तथा नियम-कानूनों के साथ-साथ अनेकानेक अन्य देशों-विदेशों के शासन-व्यवस्थाओं की धाराओं को अपने मूल संविधान में समाहित कर इसका हिस्सा बना लिया ; संविधान का बारम्बार संशोधन का भी मुख्य कारण होने के साथ-साथ इस  नक़ल की गयी शासन और प्रशासन-तंत्र तथा अंग्रेजी-विदेशी शासन का अनुपालन ही स्वतंत्र भारत के प्रजातांत्रिक राज्य-व्यवस्था को कलुषित करती रही है ; हमारी राज्य-व्यवस्था और प्रशासन-तंत्र विदेशियों के इन व्यवस्थाओं का अनुरक्षण और अनुपालन कर भारतीयता के मूल भावना को आहत कर रही है. यह शासन-व्यवस्था और प्रशासन-तंत्र जो शासकों के हित में, शासकों की संरक्षा के लिए, शासकों की सुरक्षा के लिए तथा शासकों के द्वारा भारत की जनता पर लादी गयी थी वह स्वाधीन भारतीय परिपेक्ष्य में कदापि और किसी भी प्रकार से भारत की जनता का , जनता के  लिए और जनता के द्वारा भारतीय लोकतंत्र-प्रजातंत्र के हित-लाभ के पोषक सिद्धांतों के अनुरुप और अनुकूल नहीं बन पाया था .

सभी   विदेशी  शक्तियां  हमारे  शासक  थे  और  हम  शासित ; सभी  नियम  और  अधिनियम , कायदे और कानून, धारा और उपधारा विदेशी शासन व्यवस्था के पक्ष में, शासकों के हित-लाभ के लिए, शासकों  की संरक्षा और सुरक्षा के लिए बने थे न कि शासित जनता के लिए ; हम पर वे राज करते थे हमारा शोषण करना  उनका धर्म था, हम पर अत्याचार करना उनका अस्त्र था और सब कुछ सहना हमारी नियति थी हमारा भाग्य था उनके अत्याचार, अनाचार, क्रूरता, हिंसा को  अन्नंत काल तक सहने रहने को हम बाध्य थे 1 प्रजा  के  किसी  विरोध  को  निर्ममता  से  दमन  के  लिए  ही  इनकी  पुलिस और  फ़ौज  तैनात  थी  न  कि  जनता की सुरक्षा के लिए सभी ; सुरक्षाबल जनता के किसी कोप भाजन को रोकने के लिए गठित थी न कि जनता को सुरक्षा प्रदान करने के लिए .
परन्तु दुःख और दुर्भाग्य तो अब है कि हम स्वतंत्र भारत में भी एक सम्पूर्ण लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अनुरूप-अनुकुल स्वहित स्वदेशी शासन तंत्र गढ़ने -रचने में  असफल रहे है जनहितकारी हो, जो भारत के वातावरण और परिस्थितियों के अनुकूल हो ; जो प्रजातान्त्रिक भारत के जनमानस को ध्यान में रख कर उसके हित  में उसके मान्यताओं-आदर्शों, रीति-रिवाजों और संस्कृति-संस्कार को कहीं से भी क्षति पहुंचाए बिना शुलभ, उपयुक्त और लाभकारी रूप में उपलब्ध हो 1

स्वतंत्रता  प्राप्ति  के  समय  हम  लोकतान्त्रिक  भारत  के   अनुरूप  जिस  स्वहित  स्वदेशी  शासन  तंत्र  को  गढ़ने -रचने  तथा  उसके  निर्माण   करने  में  सर्वथा  विफल  हो  गए  थे  उसके  निर्माण  होने   पर  ही  प्रजातंत्र  की  वास्तविक  हित-लाभ की उपलब्धता  जनता  को  हो  सकेगी . अतैव , विदेशी  नियम -कानून  निति  नियम  पर  आधारित  राज्य  व्यवस्था  के  अँधा  अनुकरण  और  अनुपालन  करने  से  जो  हमारी  अपनी  राज्य -सत्ता  अनुत्तरदायी , अलोकतांत्रिक , अकर्मण्य , चोरी बेईमानी, भ्रस्ट, अत्याचारी, व्यभिचारी, दम्भी, निरंकुश, वन्स्वादी, सामंतवादी, निर्मम और क्रूर हो गयी है उसके पुनर्निर्माण के लिए एक शसक्त सम्वैधानिकेत्तर परिवर्तन की आवश्यकता है. अन्यथा प्रजातंत्र  की प्रजा; जनतंत्र  की जनता और गणतंत्र की गनपुरक के बिना विदेशियों की भांति ही हमारी वर्तमान राज्य-सत्ता की राज्य-व्यवस्था क्रूरतम होगी जिसे न तो आम जन की कोई परवाह होगी न तो उसके हित में कोई निर्णय होगा. विदेशी शासकों की तरह अत्याचार-अनाचार; भ्रस्टाचार-व्यभिचार; चोरी-बेईमानी; शोषण -दमन तथा गोली-लाठी तो आम जनता को सुलभ होगी परन्तु सुविधा-सुरक्षा; भोग-विलास; धन-संपदा पर एकाधिकार, राज्य-कोष का उपभोग; एशो-आराम-अयिआशी शासन करनेवालों का मुख्य ध्येय होगा !


भारतीय जनतंत्र  की अत्यंत आवश्यकता है ऐसे राजनितिक शक्ति  की जो विदेशी भाषा, विदेशी शासन-पद्धति, विदेशी नियम-कानून, विदेशी धारा-अधिनियम, विदेशी तौर-तरीके, यहाँ तक कि गुलामी के प्रतीक-चिन्हों, खेलों और रहन-सहन तक सिमित कर व विदेशी शासन-पद्धतियों का परित्याग कर भारतीय जनतांत्रिक परिस्थिति और वातावरण के अनुकूल जनहितकारी जनता के लिए, जनता का और जनता के द्वारा एक स्वहित स्वदेशी शासन-तंत्र एवं राज्य-सत्ता जो जन-जन को सर्वथा सुलभ हो; वह जनता के प्रति पूर्ण उत्तरदायी हो न कि सत्ता के प्रति; वह जनता की सुरक्षा-संरक्षा, उन्नति-प्रगति, विकास और समृधि तथा जनता के लिए बुनियादी आवश्यकता शिक्षा-स्वास्थ्य ; रोटी-कपडा-मकान को उपलब्ध कराने में अग्रसर और तत्पर हो ऐसे विधायकों-सांसदों, सरकार और शासन का आईये हम सब मिलकर पुनर्निर्माण करें और भारतवर्ष की विश्व पटल पर गिरती हुयी गरिमा और गौरव को पुनार्प्रतिष्ठापित करें  !!

आज भारत में अपनी राष्ट्र-भाषा हिंदी / देवनागरी में बात करना हीनता का परिचायक है, यहाँ तक कि भारत में माता-पिता अंग्रेजी में बात करने वाले और अंग्रेजी खेल खेलनेवाले अपने बच्चों पर गौरव का अनुभव करते है. हमारी प्रजातांत्रिक सरकार की सभी कार्य-प्रणालियाँ, सभी प्रमुख मंत्रीगण, सभी बुद्धिजीवी समाज, सभी कलाकार, सभी बौधिकताएं आज अंग्रेजी का दास है, हर कोई अंग्रेजी भाषा के सामने नतमस्तक है, हमारे सभी निति-नियम, कायदे-क़ानून, रीति-रिवाज, रहन-सहन यहाँ तक की सामाजिक और पारिवारिक क्रिया-कर्मों ने भी अंग्रेजी और अंग्रेजों का अन्नंत काल तक के लिए दासत्व को स्वीकार करता दीखता है ; अंग्रेजी शासन-पद्धति के अनुशरण करते रहने से हमारी प्रजातान्त्रिक सरकार भी जनता के साथ विदेशी शासकों सा व्यवहार करने में ही अपना हित साधती है १ हमें इन सब बातों का भी गहन अध्यन पश्चात ही आन्दोलन के  मुख्य धारा को सुनिश्चित कर आगे बढ़ना होगा तब ही हम तीसरी-क्रांति अथवा सम्पूर्ण-क्रांति के अंतिम ध्येय को पाने की परिकल्पना को साकार करने में सक्षम और समर्थ हो सकते हैं  !! 

यहाँ यह आवश्यक होगा कि वे तीन आवश्यक तथ्य जो किसी भी व्यक्ति को, अथवा देश को महान बनाता है आन्दोलन के मूल चरित्र में समाविष्ट व समाहित करना होगा यथा :
क)   अच्छाई और भलाई करने में विश्वास 
ख)   संदेह और इर्ष्या का सम्पूर्ण अभाव  
ग)    जो अच्छा करना चाहते है अथवा करने में अग्रसर हैं उन्हें सहायता करना !

अंत में, प्रत्येक महान कर्तब्य के लिए इर्ष्या एवं अहम् भाव का पूर्ण त्याग होना सफलता को सुनिश्चित कर बाधाओं से निष्कंटक बनाता है, अतएव प्रबल दोषों को दूर कर प्राणपन से आन्दोलन के लक्ष्य पर केन्द्रित हो कर संगठन की शक्ति पर सम्पूर्ण विश्वास और श्रद्धा रखते हुए पुरे देशवासियों को जाग्रत और अवगत करना होगा कि राष्ट्र को अब और अधिक अवनति के मार्ग पर चलते जाना प्रजातंत्र के लिए घातक हो गया है 1 भारत की   आनेवाली पचास पीढियां हमारा मुँह ताक रही है 1 क्षेत्रीयता, धार्मिक असहिष्णुता, आर्थिक असामनता, विशिष्टता और विशेषाधिकार, शासक की भूमिका में जन-प्रतिनिधि, अनुत्तरदायी शासन व्यवस्था, अघोषित धन संग्रह आदि आदि अनेकानेक आम प्रचलित बुराईयों के सभी मार्गों को अवरुद्ध कर नयी चेतना से देश का राजनितिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सम्पूर्ण प्रजातान्त्रिक पद्धति का दोष रहित विकास करना ही आन्दोलन का एकमात्र लक्ष्य है 1 साथ ही साथ सम्पूर्ण भारतवर्ष में आन्दोलन को अंतिम से अंतिम व्यक्ति तक को जोड़ने की आवश्यकता निर्मित करने का दृढ संकल्प लेकर सारे भारतीय आकाश को भारत माता की जय ; बन्दे मातरम् के जय घोष को गुंजायमान करने का प्राथमिक कर्तव्य ही राष्ट्र का पुनर्निर्माण करने में सक्षम और समर्थ होगा !    इति ........

बन्दे मातरम् ; सुजलां सुफलां शस्य श्यामलां मातरम्.... !                                                      YANG BHARAT 

  वन्दे मातरम !!                                                                                                                           एक राजनितिक आवश्यकता .... 

भारत माता की जय ; जय हिंद !!                                                                                          YUVA BHARAT 

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