Popular Posts

Saturday, September 15, 2012


भारत की जनता और राजनेता :

माननीय... मनमोहन सिंह_ प्रधानमंत्री - विश्व के नामचीन अर्थशास्त्री ; मोंटेक सिंह अहलुवालिया_ उपाध्यक्ष योजना आयोग - प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ; डाक्टर डी० सुब्बाराव_ गवर्नर, भारतीय रिजर्व बैंक - जाने माने अर्थ शास्त्र ज्ञाता, प्रथम आई०आइ०टियन बाद में भारतीय प्रशासनिक सेवा में योगदान ( पुर्व आर्थिक सलाहकार, प्रधानमंत्री सचिवालय ) ; माननीय 
पी० चिदम्बरम_ वित्त मंत्री - दिग्गज वित्त मंत्री में शुमार, दक्ष, आर्थिक योजनाओं के कुशल अनुभवी ....???
 भारत के वर्तमान आर्थिक जगत के ये नामचीन पुरोधा, विख्यात आर्थिक विशेषज्ञ जिन्होंने भारत के काया पलट करने का बीड़ा उठाया, 
ना जाने और कितने नाम होंगें इस क्षेत्र के जो देश में हजारों वर्षों की गुलामी के कारण फैली कोढ़ की भांति गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, दरिद्रता, अशिक्षा और अनेको तरह की फैली आर्थिक विषमतायें तथा अन्य सामाजिक- आर्थिक - राजनैतिक बीमारियों का सफल इलाज कर देने का संवैधानिक शपथ लेकर भारत की राज्य-सत्ता पर काबिज हैं ....... ????? 
पिछले आठ सालों से राज्य-सत्ता पर बैठ केंद्र की सरकार के नेतृत्व कर्ता माननीय प्रधानमंत्रीजी ने निर्विघ्न सत्ता चला लेने के वर्षगाँठ पर प्रत्येक वर्ष सभी सांसदों और इंडिया के अभिजात्य को पांच सितारा रात्रि-भोज देना नहीं भूलते  है ... भले ही भारत की जनता को रोजगार न मिले, रोटी न मिले, पानी न मिले, दवा न मिले, शिक्षा न मिले, स्वास्थ्य-सुविधा न मिले, बिजली न मिले, चूल्हा जलाने तक को इंधन न मिले, लकड़ी-कोयला-गैस न मिले ; भले ही गरीबी रेखा की सूची हर साल बढती जाये, इन्हें कोई दुःख नहीं होता. ये गरीबी दूर करने में लगे हैं, बेरोजगारी दूर करने में लगे है _ चावल रु० २५-१५० किलो का, आटा रु० २०-२५ का, दाल ७०-९० रूपये का, चीनी ५०-७५ रूपये का, कोई भी सब्जियां ले लो हरेक माल रु० ४०-६० का, खाने का तेल रु० १२५-१५० का ; नमक रु० १५-२० का (सभी दाम किलो में), मसाले का दाम तो प्याज की तरह आँख से आंसू गिराता ही है जनता सोने के भाव में जीवन जीने के लिए कुछ खरीद तो लेती ही है_
अब कैसे कोई कह सकता है कि देश में गरीबी भी है इतने खर्च तो गरीबी रेखा से नीचे का आदमी तो कर ही लेता है रु०२३ की मजदूरी तो वह कमा  लेता ही है फिर मनरेगा में सरकार की कृपा जो मिलती है ??_ भाई क्या करे सरकार घाटे में जो चल रही है उस पर से मैडम ने दो साल बाद चुनाव को भी याद रखने का निर्देश भी दे रखा है इसलिए आज से तो डीजल-रसोई गैस का भी दाम बढ़ाना जरूरी हो गया है चुनाव खर्च का जुगाड़ जो करना है पार्टी के लिए.


ऍफ़० सी० आई० के गोदामों में भले ही अनाज सड़ जाये लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर भी भूखों- प्यासों को एक भी दाना अनाज का या  एक ग्लास पानी मुफ्त में क्यों दिया जाये. सरकार उदारीकरण के बाद व्यापारी जो हो गयी है_ बिना लाभ के वाणिज्य अधर्म का मार्ग होता है ऐसा शास्त्रों में लिखा है तभी तो सरकार ने धरती (जमीन- खदान, तेल कुआँ ) बेच दी, आकाश (संचार) बेच दी, जल बेच दिया ( पीने का भी) , वायु (हवाई) बेच दिया, वनों को बेचा, पहाडो को बेचा, तेल बेचा - गैस बेचा, दारु बेचा - शराब बेचीं_ क्या क्या नहीं बेचा फिर भी लोग हैं की शाबासी देते नहीं_ तो भई क्या करें अपने लिए भी तो कुछ करना था तो किया भ्रस्टाचार, किया हेराफेरी, घोटाले किया, गबन करी जो कुछ मिला डकार गए_ अब देश बदहाल है तो हुआ करे, कंगाल है तो हुआ करे, अराजक हो रही है तो हुआ करे, अफरातफरी मची है तो मचा करे अपना भी तो देखना है पांच साल बाद न जीत पाए तो कौन पूछेगा भई_ भारत की जनता कब याद रखती है चुनाव के समय जो हम उन्हें याद कर कोई कार्य करें..?????












Decline Of Free BHARAT

 भारत का पराभव :


ऐसेशक्तिशालीअर्थ-व्यवस्था को लेकर क्या होगा जिस राष्ट्र का ८० प्रतिशत जन-संख्या ( १०० कड़ोड़) गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करती है ? जिस देश की आम जनता २० रूपये की दैनिक आमदनी पर निर्भर है, जिस देश के अधिकाँश लोग भूखे सोने को बाध्य हैं उस देश के प्रधानमन्त्री देश के सशक्तिकरण करने के नाम पर, जनता के नाम पर, जनहित के नाम पर देश को पुनः विदेशियों के हाथ बेच डालने पर आमादा है ; वर्ष १९९१ से उदारीकरण के नाम पर जो खेल राजनीतिज्ञों ने खेला है सभी के सामने है ; साल दर साल लम्बी होती बी पी एल की सूची, जिसके अन्दर के लोगों ने '९१ से १२ के सितम्बर तक तो उदारीकरण के लाभ को तो देख नहीं पाए ; न मिली शिक्षा न मिला स्वास्थ्य, न मिली रोटी न मिला मकान, न मिली बिजली न मिला रोजगार, पैदल चलने वालों को सड़क का क्या सरोकार, मिला तो मिला बस महंगाई, बेरोजगारी, भूख, बेबसी, दीनता-दयनीयता, कष्ट और पीड़ा के साथ-साथ अगर मिला तो मिला दिन प्रतिदिन भ्रष्ट होती राज्य-व्यवस्था, चोर-बेईमान होते राज्य-प्रशासन, क्रूर-निरंकुश होते जन प्रतिनिधि, हिंसक और अमानवीय होते सुरक्षा प्रहरी, अनैतिकता और अवैधानिकता को हर कदम लांघती राज्य सत्ता के कारण लोकतंत्र, प्रजातंत्र और गणतंत्र लांछित होती रही और जनता मुंह ताकती रही. 

स्वाधीन भारत पहले कल्याणकारी राज्य स्वीकृत हुआ था, 1991 में उदारीकरण के पश्चात वाणिज्यिक राज्य हो गया ; व्यवसाय धर्म हो गया एक ऐसे राष्ट्र का जिसका मर्म था त्याग और सेवा ! स्वाधीन भारतवर्ष का ह्रदय विदीर्ण हो गया, संविधान के अन्तः स्थल में जिस गणतंत्र की स्थापना की गयी थी वह लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद आधारित राष्ट्र की परिकल्पना थी. परन्तु भारत उस पथ पर चल पड़ा जो समाजवाद के सिद्धांतों के एकदम विपरीत था और समाजवाद परिवर्तित होकर पूंजीवाद में विश्वास करनेवाला राष्ट्र हो गया ; समाजवाद सर्वे भवन्तु सुखिनः में विश्वास रखता है वहीँ पूंजीवाद व्यक्तिगत उन्नयन में ___ पूंजीवाद भारत के त्याग और सेवा के भाव को विल्कुल ही मटियामेट कर गया वहीँ पूंजीवाद ने मानव को सर्वोच्च संकुचित भाव के पथ पर डाल दिया.
हमारी लोकतान्त्रिक सरकारों ने समाजवाद के स्थान पर पूंजीवाद को संवैधानिक दायित्वों और दायरों के इतर बेहतर मान व्यावसायिकता को अपने मुख्य-धारा में अंगीकार कर लिया. राज्य-सत्ता के कर्तव्य हीनता को उन्नत करने के बदले व्यवसायी बनना उचित समझा और पुरे राष्ट्र को विश्व के कुछ पश्चिमी-यूरोपीय देशों की अन्धानुकरण करने पर बाध्य कर दिया.
भारतीय समाज में व्यवसाय और व्यवसायी को कभी उच्च श्रेणी में नहीं गिना जाता रहा है, व्यवसायी अपने आर्थिक हितों की क्रूरता के लिए जाना जाता है ; व्यवसाय में लाभ अर्जित करने हेतु व्यवसायी किसी भी सीमा तक ठगी करता है, बेईमानी करता है, निसंदेह मुँह पर हंसी का मुस्कान विखेर ग्राहक का आर्थिक शोषण-दोहन करता है ; व्यवसायी वर्ग दीन-हीन-गरीबों का शत्रु होता है, यह जग-जाहिर है ; व्यवसायिओं का कोई मित्र नहीं होता वह अपना हित-अहित-लाभ कमाने की द्रिस्टी रखता है अन्यथा वह किसी ग्राहिकी को पहचानता तक नहीं_इस चरित्र का व्यक्ति, समूह या संगठन कभी कोई सामाजिक हित साधने में अपनी आस्था नहीं रखता ; रखता है तो बस अपनी लाभ-हानि का हिसाब और बही-खाता. मनुष्यता अथवा मानवता का कोई अर्थ नहीं व्यावसायिक अथवा वित्तीय चरित्र में. वह क्रूर होता है, विद्रूप होता है, शोषक होता है, चोरी, बेईमानी, ठगी इसका धर्म है यह कोई अतिशयोक्ति नहीं वरन सोलहो आने सच है. और व्यापार करने वालों के निर्मम शिकार का प्रथम लक्ष्य गरीब, दुखी, दरिद्र, निर्बल, अशक्त, अवसरविहीन मानवता पहले स्थान पर होती है.
वैशवीकारण के नाम पर हमारा स्वाधीन भारत उन गिने चुने व्यापारी देशों के भुलावे में व्यवसायिकता को स्वीकार कर अपने मूल चरित्र को ही बंधक बना गया, उन पश्चिमी देशों की परिस्थिति स्वतंत्र होकर विकास करने की रही थी जबकि हम उनके अधीन परतंत्रता की बेरी को काट कर दीनता-हीनता से मुक्त होने के लिए ही तथा स्वयं के विकसित होने के लिय बलिदान देकर अभी-अभी स्वाधीनता पायी थी. उनकी सड़ी-गली आर्थिक नीतियाँ जिसके बल पर वे राष्ट्र उन्नति के उच्चतम शिखर पर पहुँच वापसी करने लगे थे, उत्पादकता के चरमोत्कर्ष के लिए उनके पास ग्राहक नहीं थे, उनके देशी बाज़ार में क्रय शक्ति घटती जा रही थी, बड़े-बड़े काल-कारखाने जो उन्होंने लगा रखे थे उसके उत्पादन का खपत दिनानुदिन निम्तम स्तर को पहुँच रहा था, उनकी जनसंख्या-उपभोक्ता सिमित हो गयी थी, खरीदार के अभाव में आर्थिक मंदी का होना निश्चित जान पड़ता था एक तरफ बाजारवाद उनके ही देश में आप्रासांगिक हो आर्थिक अवनति की ओर चल चुकी थी तो दूसरी ओर उनकी कुटिल दृष्टि उन देशों की ओर लगी थी जो जनसंख्या बाहुल्य देश थे वहाँ वे अपनी ग्राहकी को लालायित हो वैश्वीकरण की निति घोषित करने लगे, जहां वे अपने उत्पादन को बेचकर अपनी आर्थिक उदासी को समाप्त करने की योजना को क्रियान्वित करने लगे ; भारतवर्ष भी उनमे एक था जिसकी जनसंख्या और विकसित होने की तीव्र लालसा उनके अनुकूल और उपयोगी थी. भारतीय नेतृत्व नए नवेले राष्ट्र की राज्य-सत्ता पाकर दिनानुदिन मदांध हो निरंकुश होते गए, परतंत्र भारत की कराहती, दुखी, व्यथित जनता अपने प्रतिनिधियों के हाथ बागडोर सौंप निशिंत होती गयी और गलती यंहीं हो गयी....!
 सारे के सारे अनैतिक और अवैधानिक कार्य जनता के नाम पर प्रारम्भ होने लगे ,  यह सब किया गया जनहित के नाम पर ! कैसी बिद्म्बनापूर्ण स्थिति है देश की ; स्वतंत्र भारत में कुछ नहीं बदला. बदला है तो नाम, भारतवर्ष से इंडिया हो गया और इस अंग्रजी नाम को पाकर इंडिया अंग्रेजों की निति और प्रशासन को पुनः अपना लिया. पुनः परतंत्र हो गया राजनितिक नहीं वरन आर्थिक गुलामी कर पश्चिमी देशों का फिर गुलाम हो गया! 





      

Tuesday, September 11, 2012

स्वामी विवेकानंद की 150 वीं जन्म शताब्दी पर स्वामीजी की प्रासंगिकता वैसी की वैसी बनी हुई है जैसी की उनके जीवन काल में थी i

स्वामीजी ने अपने जीवन काल में कहा था _ कोई विवेकानंद ही इस विवेकानंद को समझ सकेगा कि यह क्या कह-कर गया है I

स्वामीजी ने अपने जीवन काल में ही यह भी कह गए हैं कि इस विवेकानंद ने तो अमरत्व को पा लिया है परन्तु इसका अमरवेल इस इहलौकिक शरीर को त्यागने के 150 वर्षों के पश्चात मात्र भारत ही नहीं वरन सम्पूर्ण विश्व को आच्छादित कर शताब्दियों तक मानव जाति का हित-साधना कर सकेगी !

स्वामीजी ने युवा भारत की परिकल्पना से विश्व को सम्मोहित किया था जो विश्व को नेतृत्व करने के लिए पूर्ण सामर्थ्यवान होगा परन्तु आवश्यकता है वीरों की_वीर बनो I चट्टान की तरह दृढ रहो  सत्य की सदा विजय होती है I ....भारत को नव विद्युत्-शक्ति की आवश्यकता है, जो भारतीय धमनी में नविन स्फूर्ति का संचार करे I ...साहसी बनो, साहसी बनो - मनुष्य एक बार मरता है I मेरे अनुशरण करने वाले कभी कायर मत बनो I पुरुषार्थ को धारण कर गंभीर बुद्धि का स्वामी बनो
बालबुद्धि जीव तुम्हे क्या कहता है तनिक भी परवाह न करो, उस पर ध्यान मत दो I ' हे वीर अपने पौरुष का स्मरण करो_ हमारे राष्ट्र को इस समय कर्म्-तत्परता और वैज्ञानिक प्रतिभा की आवश्यकता है I .... महान तेज, महान बल तथा महान उत्साह की आवश्यकता है I अबलापन से राष्ट्र के कार्य नहीं हो सकते ?

अतएव उठो, साहसी बनो, वीर्यवान होओ I सब उत्तरदायित्व अपने कन्धों पर लो - यह याद रखो कि तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हो I तुम जो कुछ भी बल या सहायता चाहो, सब तुम्हारे ही भीतर विद्यमान है I अतएव इस ज्ञानरूप शक्ति के सहारे तुम बल को प्राप्त करो और अपने ही हाथों अपना भविष्य गढ़ डालो !

पीछे की ओर देखने की आवश्यकता नहीं है -- आगे बढ़ो I हमें अनंत शक्ति, अन्नंत उत्साह, अन्नंत साहस तथा अन्नंत धैर्य चाहिए, तभी महान कार्य संपन्न होगा I

समस्त जातियों को, सारे सकल मतों को, भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के दुर्बल, दुखी, तिरस्कृत लोगों को स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर मुक्त होने के लिए उच्च स्वर में उदघोष कर रहे हैं_मुक्ति अथवा स्वाधीनता ; दैहिक स्वाधीनता ; मानसिक स्वाधीनता ; राजनैतिक स्वाधीनता ; आर्थिक स्वाधीनता ; आध्यात्मिक स्वाधीनता __ एक सम्पूर्ण स्वाधीनता जो उपनिषदों का मूल मन्त्र है I






                                                 

Monday, September 10, 2012


                              क्या भारत मर जाएगा ???

कभी नहीं ! यह हो नहीं सकता !!                                                                                                                                                               यदि ऐसा होता है तब तो सारे संसार से सारी आध्यात्मिकता का समूल नाश हो जायेगा, सारे सदाचारपूर्ण आदर्शों के जीवन का विनाश हो जायेगा धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानभूतियां नष्ट हो जाएगी, सारी भावुकता का लोप हो जायेगा और उसके स्थान पर कामरूपी देव और विलाशतारुपी देवी राज्य करेगी. धन उसका पुरोहित होगा ; प्रताड़ना, पाशविक बल और प्रतिद्वंदिता, ये ही उनकी पूजा-पद्धति होगी और मानवता उसकी बलि-सामग्री हो जाएगी. ऐसी दुर्बलता कभी हो नहीं सकती, क्रियाशक्ति की अपेक्षा सहनशक्ति कई गुना बड़ी होती है. प्रेम का बल घृणा के बल से अनन्त गुना अधिक है.


हाँ यह अवश्य है कि कुछ अराष्ट्रीय, गैर-राष्ट्रिय अथवा हमसे इर्ष्या रखने वाले कुछ विदेशी राष्ट्र या कौमें विश्व की हमारी इस सबसे प्राचीनतम, अतुलनीय, सुन्दर, अनेकता में एकता, सर्वधर्म समभाव की सभ्यता-संस्कृति को प्रदूषित करना चाहतें हैं ?? भारत को मिटाने की कोशिश हमेशा से होती आई है हजारों वर्षों से हम इसे झेलते आ रहे हैं. विदेशी लूटेरे, बाहरी आततायिओं, विदेशी आक्रमणकारी और विदेशी साम्राज्यवादी शक्तियों ने हमें हजारो बार मिटाने के लिए भरपूर रौंदा है, हम पर अमानवीय अत्याचार किया है और हमें सहस्त्रों वर्षों तक गुलाम बनाकर रखा है.   

फिर भी चिंता की कोई बात नहीं, भारत का पुनुरुथान हुआ है और होगा ! अवश्य होगा !  पर वह जड़ की शक्ति से कभी नहीं, वरन आत्मा की शक्ति से ! वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं होगा, वरन शांति और प्रेम की ध्वजा से होगा ! संतो के द्वारा होगा, शैतानों से नहीं ! धन की शक्ति से नहीं, वल्कि भारत के त्यागी और भिक्षा-पात्र की पौरुष-शक्ति से संपादित होगा ! विश्व में कहीं कोई उदाहरण नहीं जहां धनी व्यक्तियों ने,विद्वत-विशेषज्ञों ने किसी राष्ट्र के मुख्य धारा को परिवर्तित किया है. एक या दो महान उदाहरण को पैदा करने की शक्ति तो धरा के किसी भी भू-भाग को प्राप्त होता है पर राष्ट्र तो तब महान बनता है जब कुल जमा पुरे राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति का जीवन स्तर उच्चतर श्रेणी का हो !

इसके लिए जन-जन की दिव्यता को जगाना होगा, क्षुधा-तृष्णा सहित ताप को सहन करने की क्षमता अर्जित करना होगा ! विलाशता-वैभवपूर्ण भवनों में बैठकर धर्म की थोड़ी सी चर्चा करना भले ही अन्यान्य जाति और कौमों को शोभा देती होगी, पर भारत को इससे कहीं अधिक सत्य की पहचान है ; असत्य और कपट को यह देश दूर से ही ताड़ जाता है. हमें अब त्याग करना होगा उन सभी कर्मों को - जो हमें भटका देती है__ अपने लक्ष्यवेध से ; महान देश के लिए महान उदेश्य की प्राप्ति हेतु महान और कठिन कार्य आरम्भ करना होगा ; कोई भी बड़ा कार्य बिना त्याग के हो नहीं सकता !! 

अपने आरामों को - अपने सुखों का - अपने नाम - यश और पदों का__ इतना ही नहीं, अपने जीवन तक का __ त्याग और समर्पण करना होगा ! मनुष्यरूपी श्रृंखला का निर्माण कर ऐसे पुल का निर्माण करना होगा जिस पर हो कर भारत की चतुरंगिनी, चहुंमुखी और माता की पुत्रवाहिनी सेना पार कर जाये. समस्त देशभक्ति शक्तियों को एकत्र कर देश-प्रेम की अति उज्जवल ध्वजा के अध्यधीन कर्म करना होगा_सफलता निश्चय मान उद्घोषणा करनी होगी, आत्मशक्ति के सम्मुख सभी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक बंधन और अन्यान्य बाधाएँ स्वयं ही भारत की पुकार से पथ को आलोकित कर देगी. भारत का भविष्य अब और अधिक गौरवशाली और उज्जवल दीखता है, अनेकानेक सच्चरित्र , त्यागी , सत्य और अहिंसा का परवाह करते हुए युवकवृन्द राष्ट्र-यज्ञ में अपना सर्वस्व लूटाने को आतुर हो रहे हैं _ परन्तु परवाह किये बिना माँ भारती को एक बार अपने सिंहासन पर पुनः प्रतिष्ठित करने हेतु पुर्व की अपेक्षा अधिक महिमामंडित होकर विराजमान करने का संकल्प पूर्ण जाग्रत अवस्था में  करना होगा !  
                                                                                                                                                                                                       अतएव, सभी भावी देशभक्तों, भावी देशप्रेमियों, भारत की भावी नव-निर्माणकारी शक्तियों को एकत्र होकर इर्ष्या-विद्वेष का त्याग कर अनुभव करना होगा, क्या हम अनुभव करते हैं कि देवता और ऋषियों की कड़ोड़ के कड़ोड़ संतानें आज फिर पशु-तुल्य हो रही     है ? क्या हम ह्रदय से यह अनुभव करतें हैं कि भारतवर्ष में कड़ोड़ के कड़ोड़ आदमी भूखों मर रहे हैं और लाखों-कडोदों लोग शताब्दियों से ऐसे मरते आ रहे हैं ? कडोदो-कड़ोड़ युवक-युवतियां रोजगार के चक्रव्यूह में फंसे हैं अपनी हल न होने वाली व्यथा से छटपटा रहे हैं. आवश्यकता से कहीं अधिक अन्न पैदा करने के बाद भी हम भूखे हैं महंगाई की मार से बेचैन हैं, धन की जमाखोरी चरम पर है, पैसों की कालाबाजारी चरम पर है, राज्यकोष का लूट है-बंदरबांट है, कालाधन विदेशी बैंकों की शोभा बढ़ा रही है, हमारा काला-धन विदेशों का विकास कर रही है , दलितों की झोपड़ियाँ अन्धकार में है, बेसहारों के तन पर धोती नहीं है, अशिक्षित- तिरस्कृतों का जीवन नारकीय बना हुआ है,  फिर भी उन्माद है_शोषक और सामंतों का , अट्टहास है बढती महंगी अर्थ व्यवस्था पर ; हास्य है उन रहनुमाओं का दलितों की झोपड़ियों को जानने की ; तो कौतुक है योजनाकारों का श्रमिकों को बत्तीस रूपये की पारिश्रमिक मिलने की ; संतुष्टि है सामंती नेतृत्वों को उन कराहते-पीड़ित मानवता पर_ तो तो क्या हम कभी अनुभव करते हैं कि अज्ञानता के काले बादलों ने पुरे भारतवर्ष को एक बार पुनः ढँक लिया है ? क्या यह सब सोच कर हम कभी बेचैन होते है ? क्या यह भावना हमें कभी निद्राहीन करती है ? क्या यह भावना कभी हमारे रक्त के साथ मिलकर हमारी धमनियों में बहती है ? क्या यह कभी हमारे दिल की धड़कन बनती है ? क्या यह कभी हमें पागल बनाता है ? क्या कभी देश कि इतनी दुर्दशा हमारे चिंता का कारण बनी है ? और क्या हम इस चिंता कि आत्मानुभूति कर अपने-पराये, अपना नाम-यश, पुत्र-परिवार, धन-सम्पति, यहाँ तक कि अपने शरीर तक की सुध को विसार दिया है ? यदि अब हम इस आत्मानुभूति का अन्तःस्थल से अनुभव करते है तो ही हम देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रख लक्ष्य को पाने का दावा कर सकते है -- हाँ, केवल पहली सीढ़ी होगा यह !  www.facebook.com/anil.karn58

हमारे राष्ट्र के लिए इस समय कर्मतत्पर्ता तथा वैज्ञानिक प्रतिभा की आवश्यकता है ....महान तेज, महान बल और महान उत्साह की आवश्यकता है. अबलापन से क्या यह कार्य संपन्न हो सकेगा ?   "उद्योगी पुरुष ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है".   एक अंग्रेज बालक, एक अमेरिकन बच्चा यह कह सकता है की वह अंग्रेज है __ वह अमेरिकन है, वह सब कुछ कर सकता है ; वह कुछ भी करने में सक्षम है यह दावा कर सकता है वह __ एक अमेरिकन या यूरोपीय युवक इसी तरह बड़े-बड़े दावे करने में समर्थ होता है. परन्तु क्या हमारे भारत के बच्चे इस तरह की बातें कर सकतें है ? कदापि नहीं ; बच्चों के माता-पिता भी नहीं कर सकते. क्या बच्चे क्या बूढ़े और युवा तो अपनी भाषा तक को पहचानना ही भूल चुके है, आज भारत में अपनी राष्ट्र-भाषा हिंदी / देवनागरी में बात करना हीनता का परिचायक है, माता-पिता तो अंग्रेजी में बात करने वाले अपने बच्चों पर गौरव का अनुभव करते है. हमारी प्रजातांत्रिक सरकार की सभी कार्य-प्रणालियाँ, सभी प्रमुख मंत्रीगण, सभी बुद्धिजीवी समाज, सभी कलाकार, सभी बौधिकताएं आज अंग्रेजी का दास है, हर कोई अंग्रेजी भाषा के सामने नतमस्तक है, हमारे सभी निति-नियम, कायदे-क़ानून, रीति-रिवाज, रहन-सहन यहाँ तक की सामाजिक और पारिवारिक क्रिया-कर्मों ने भी अंग्रेजी और अंग्रेजों का अन्नंत काल तक के लिए दासत्व को स्वीकार करता दीखता है ; अंग्रेजी शासन-पद्धति के अनुशरण करते रहने से हमारी प्रजातान्त्रिक सरकार भी जनता के साथ विदेशी शासकों सा व्यवहार करने से दम्भित है ; हमने एक बार फिर अपनी आत्म-श्रद्धा  को खोने के रास्ते पर चल दिया है, हमने अपना आत्मविश्वास खो दिया है. अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने के लिए हमारी कितनी ही पीढ़ियों ने आत्म-बलिदान दिया है इतिहास गवाह है _ हँसते-हँसते अपने प्राणों को बलिदान किया है, फाँसी के फंदे को गले लगाया है. हम लोगों में पाश्चात्य जातियों की नक़ल करने की इच्छा ऐसी प्रबल होती जा रही है कि भले-बुरे का निश्चय अब विचार-बुधि- शास्त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जा सकता. पश्चिमी सभ्यता जिस भाव और आचार-विचार कि प्रशंसा करे हम उसे ही अन्धानुकरण कर आत्मसंतुष्ट हो लेते है, उनकी सभी बांतें हमें अच्छी लगती है,वे जिसकी भी निंदा करें, वही बुरा ! परन्तु अफ़सोस ! इससे बढ़कर मुर्खता का परिचायक  और क्या होगा ? क्या दूसरों की हाँ में हाँ मिलाकर, दूसरों का नक़ल कर, परमुखापेक्षी हो कर दासों की दुर्बलता को उतार फेंकने में समर्थ हो पायेंगें कभी हम , इस घृणित, जघन्य निष्ठुरता से हम क्या बड़े-बड़े अधिकार को पाने में सफल हो सकेंगें ? क्या इसी लज्जास्पद कापुरुषता से हम सम्पूर्ण स्वाधीनता को पा सकते हैं ? उत्तर शायद नहीं में ही होगा ! कभी नहीं, यह हो नहीं सकता ! तो सकारात्मक उत्तर की प्राप्ति के कौन से मार्ग उचित होंगें हमें ढूढना होगा ? हमारी जाति-देश की उन्नति किस प्रकार हो सकेगी उन पथों का स्वयं निर्माण करना होगा_ दूसरों की नक़ल कर नहीं वरन अपनी पद्धति का स्वयं का निर्माण व् विकास करना होगा !
                                                                                                                                                                                                         हमारी भारतीय-जाति को शक्तिहीन कर देने वाली दुर्बलताओं का प्रवेश विगत एक हजार वर्षों से ही हुआ है इन पिछले कुछेक हजार वर्षों में ही मानों हमारे भारतीय जीवन अपने को दुर्बल से दुर्बलता की ओर धकेल लेने का ही लक्ष्य निर्धारित कर रखा था और अंततः हम उस परिस्थितियों की सहर्ष स्वीकारोक्ति से अपने को दलित बना डाला ; हम उस केंचुए के समान हो गए जो हर प्रकार से विदेशी शक्तियों के पैर के पास रेगतें रहने को बाध्य हो कर इसे ही अपनी प्रतिष्ठा और गौरव समझने लगे, हम बाध्य थे कि इस समय जो चाहे हमें कुचल सकता है. परतु परिस्थिति बदली हम स्वाधीन हुए, अनेकानेक बलिदानियों ने हमें परावलंबन से मुक्त कराया, आज हम स्वतंत्र हैं फिर भी दासता को हजारों-हजार वर्षों तक सहते रहने से, दासता की पाठ पढ़ते-पढ़ते हमारी मुख्य जीवन धारा ने जिस दुर्बलता को आत्मसात कर लिया वही शक्तिहीनता आज भी हमारी दुर्दशा-दुर्दिनों का प्रमुख कारण है. इस कुरूप स्वभाव को, विदेशियों के मुखापेक्षी विकृत चरित्र को ढोना स्वतंत्र भारत में महापाप है, ये हमारे प्रमुख दोष हैं जिसे अब उतार फेंकना होगा. 

तो ए वीर भारत ! परावलंबन ही विकट भय का कारण है. हमें स्वाबलंबन की पाठ से भारत में जान-प्राण डालना होगा. अपने आत्मविश्वास को जगाना होगा, अपनी आत्मश्रधा को पुनर्जीवित करना होगा ! विश्वास, सहानभूति - दृढ विश्वास;ज्वलंत श्रद्धा चाहिए. श्रद्धा, श्रद्धा ! अपने आप पर श्रद्धा तथा परमात्मा में श्रद्धा और विश्वास का तीव्र वेग ! इस श्रद्धा और विश्वास को हमें पाना ही होगा ! पश्चिमी जातियों के जिस भौतिक शक्ति-विकास को हम ललचाई दृष्टि से देखतें हैं वह उनके इस श्रद्धा-विश्वास का ही फलाफल है क्योंकि वे अपने मानसिक-शारीरिक बल के विश्वासी हैं. इसी प्रकार हम भी अपने आत्मशक्ति, आत्मा की शक्ति पर श्रद्धा-विश्वास कर आगे बढें तो हमारी आत्मबल की वृधि होना निश्चित है. इसी श्रद्धा-विश्वास को प्राप्त करने का महत्वपूर्ण कार्य सम्मुख करना होगा. पिछले सैकड़ो वर्षों की दासता की विषाणु जन्य आघात से हमारे रक्त-मज्जा में जो उपहास करने का रोग समां गया है, प्रत्येक विषय को हंसकर उड़ा देने की इस विकृत स्वभाव को छोड़ना होगा, गंभीरता के चरित्र को गढ़ना होगा और वीर बनकर  श्रद्धा-विश्वास के साथ अपने आप को सुदृढ़ करना होगा आगे सब कुछ तो अपने आप होता ही जाएगा - अवश्यम्भावी होगा !

हम तो आज भी उसी सर्व शक्तिमान परम पिता की संतान हैं, उसी अन्नंत ब्रह्माग्नि की चिनगारियाँ हैं__ " हम कुछ नहीं क्योंकर हो सकते हैं" ? हम सब कुछ हैं और सब कुछ कर सकते हैं, हमें करना ही होगा. इसी आत्मविश्वास रूपी प्रेरणा-शक्ति से हम कभी विश्व सभ्यता की उच्च से उच्चतर सीढ़ी तक पहुँच पाए थे, अब हमारी अवनति हो रही है, हममे कोई दोष आया है तो उस आत्मविश्वास की कमी से ही हमारी दुरावस्था है. यह आत्मविश्वास का आदर्श ही हमारे राष्ट्रिय जीवन की मुख्यधारा को उन्नतिशील-प्रगतिशील बनाने में सहायता कर सकता है. सम्पूर्ण राष्ट्रिय जीवन में इस आत्मविश्वास रूपी अस्त्र का विकाश हो तो निश्चय ही अधिकांश दुःख और अशुभ-अवनति का नाश हो जायेगा. निष्कपट विश्वास एवं सदुद्देश्य निश्चय इन दोनों अस्त्रों के धारण मात्र से ही न्यूनतम लोग भी समस्त विघ्न-बाधाओं को पराजित कर जय-लाभ कर लेंगें, उन्हें सम्पूर्ण धरा की कोई भी विनाशकारी शक्तियां पराजित नहीं कर सकती, कोई क्षति नहीं पहुंचा सकता चाहे सभी अवसरवादिता एक साथ उसके विरुद्ध ही क्यों न खड़ा हो ! दुर्बलता से ही सभी दुःख और कष्ट पैदा होते हैं, दुःख भोगते रहने का मुख्य कारण यही है ; दुर्बलता के कारण ही हम चोरी-डकैती, झूठ-ठगी-बेईमानी, अत्याचार-व्यभिचार, भ्रस्ताचार-घपले-घोटाले करने को विवश होते हैं. यह दुर्बलता ही सभी दुखों का कारण है, सभी कष्टों का उद्गम है.
                                                                                                                                                                                                                     हमें आलस्य का त्याग कर उठना होगा, साहसी बनना होगा, वीर्यवान चरित्र से शक्तिसंपन्न होकर सभी उत्तरदायित्व को अपने कन्धों पर लेना होगा, स्वयं को उत्तरित करना होगा कि हम स्वयं ही अपने भाग्य के निर्माता हैं तथा जो कुछ भी हम चाहते हैं सब कुछ हमारे भीतर विद्दमान है. विश्वास की आत्मशक्ति से हमें अपना भविष्य गढ़ना होगा. अतः बल ही एकमात्र आवश्यक बात है, बल ही भाव-रोग की दवा है. धनी-वर्ग के द्वारा निर्धनों का शोषण-दमन-उत्पीडन के विरुद्ध बल ही दवा है, विद्वानों द्वारा दबाये सताए जानेवाले अशिक्षितों का बल ही एकमात्र दवा है, अन्य पापियों के विरुद्ध भी यही एकमात्र दवा है.

अतएव हे वीर भारत ! वीर-धीर-गंभीर भारत ! उठो जागो और लक्ष्य की प्राप्ति होने तक रुको मत ! अतः हे भारत के वीर ; हे भारत की वीरांगनाएं  उठो और जागो__ फिर एक बार उठो ! फिर एक बार माता को तुम्हारी आवश्यकता आन पड़ी है ! इस बार अपनों नें घात-प्रतिघात किया है, निज ने छल किया है माता के साथ_माँ के आँचल को अपनों ने तार-तार किया है ! माँ एक बार पुनः तुम्हें पुकार रही है, अपनी व्यथा का आर्तनाद कर रही है , चिल्ला-चिल्ला कर कह  रही है उठो, जागो हे सुपुत्र पुत्र-पुत्रियाँ समय रहते जाग जाओ ! हे वीर भारत अपने पुरुषार्थ के सिंहनाद की गर्जना से सम्पूर्ण भारत में महामारी की तरह फ़ैल चुकी भ्रष्टाचार-व्यभिचार-अत्याचार, हत्या-बलात्कार-हिंसा, इर्ष्या-विद्वेष-उत्पीडन, शोषण-दमन-दोहन, चोरी-डकैती-बेईमानी के साथ-साथ राज्य-सत्ता, राज्य प्रशासन-तंत्र और राजनीति में कोढ़ की तरह प्रचलित घूस-घपले-घोटाले ; भाई-भतीजावाद-वंशवाद ; निरंकुशता-सामंतवाद-अधिनायकवाद को निर्मूल करने के लिए, इसे जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए रणभेरी की गगन भेदी शंख को फूंक दो, रण-श्रृंगा बजा दो ! भारत के आकाश को परिवर्तन की आँधी के तुमुलनाद से गुंजायमान कर दो ! अग्निमंत्र से अभिमंत्रित कर राष्ट्रनिर्माण के यज्ञ-कुंड में आन्दोलाग्नि को प्रज्वल्लित कर दो ! माँ भारती की आनेवाली पचास पीढियां हमारा मुँह ताक रही है ; आज हम न जग़ पाएँ तो अनर्थ अवश्यम्भावी होगा ?

पूर्वजों के आशीर्वाद वचनों का स्मरण कर माँ के नाम की शांतिपूर्वक घोषणा कर देना होगा कि राष्ट्रिय भारत निकल पड़े खेतों-खलिहानों और मेड़ो या कि पगडंडियों से, निकल पड़े कि हलवाहे के हल से, कि किसानों के मचानों से, नवीन भारत निकल पड़े कि झाड़-झंखाड़ों-पेड़ों और पहाड़ों से, निकल पड़े कि नदियों और तालाबों से,  नूतन भारत निकल पड़े कि तिरष्कृत और दलितों की झोपड़ियों से, कि निकल पड़े हंसिये और कुदालों से, निकले चाहे भारत दर्जी के मशीनों से कि लोहारों की भाथियों से, निकले चाहे कि नया भारत कल-कारखानों से कि निकले चाहे हलवाईयों की मिठाइयों से या कि आइसक्रीम पार्लरों से, कि नाई की हजामत से या कि तो जूतों की दुकानों से, नूतन-नवीन भारत निकले आई० टी० पार्कों से या मालों और काम्प्लेक्सों से, निकले युवा भारत कि स्चूलों और कालेजों से, कि निकले संतों-कवियों की कुटियों से, तो निकले लेकिन निकले नवजागरण का लेकर सभी शपथ - मन्त्र  औ सन्देश राष्ट्र के नवनिर्मानों का !

भारत के कल्याण के लिय एक बार उठना होगा आगे आकर नेतृत्व संभालना होगा हमारे उन प्रिय युवाओं को, चाहिय तो बस उत्साही युवक-युवतियां, आत्मविश्वासी युवक वृन्द, जिन्हें कुछ समय के लिय अपने जीवन की समस्याओं को यथा-स्थान छोड़ना होगा; कुछ समय के लिए छोड़ना होगा उस पश्चिमी प्रतियोगितावादी-उपभोगितावादी-भौतिकतावादी तनाव व अवसादपूर्ण और दिशाविहीन जीवन मूल्यों को, इन सब बातों को छोड़ना होगा तो अपने उन समस्त जातियों के लिए, सकल मतों के लिए, भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के दुर्बल, दुखी, पद दलितों के लिए जिन्हें अपने पैरो पर खड़ा करने केलिए उच्च स्वर से उद्घोषणा करना है __ स्वाधीनता - मुक्ति__ दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, सामाजिक स्वाधीनता, राजनैतिक स्वाधीनता, आर्थिक स्वाधीनता और अंत में आध्यात्मिक स्वाधीनता के लिए. त्यागना है परतंत्रता केवल परतंत्रता को समाप्त करने के लिए. चाहिए तो बस लोहे की नसें और फौलाद की मांसपेशियां जिसके बज्र के सामान कंधें हों__चाहिय तो बस अन्नंत उत्साह, अन्नंत धैर्य, अन्नंत पौरुष, अन्नंत बल के स्वामी उस युवकवृन्द का जिनके अन्दर क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज का पूर्ण समागम हो ! हमारे देश को इस समय वीरों की आवश्यकता है_वीर बनो चट्टान की तरह दृढ रहो. भारत को नव-विद्युत् शक्ति की आवश्यकता है जो राष्ट्रिय जीवन में नवीन स्फुर्तियों का संचार कर सके_ साहसी बनो, साहसी बनो_कायरता को दूर करो हे वीर, अपने पौरुष का स्मरण करो,काम-कान्चानासक्त दयनीयता का त्याग करना अभी उचित होगा ! सभी प्रकार की शक्तियां तुममें है, हे वीर,धीर-गंभीर युवा अपने ऐश्वर्यमय स्वरुप का विस्तार करो. तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे है_प्रबल शक्ति आत्मा की है_विस्तार करो विस्तार करो !  

एक बार फिर भारत माता की जयघोष करो ; जय घोष करो ! वन्दे मातरम ! जय हिंद_ के सिहनाद और इन्कलाब-जिन्दावाद की गर्जना से भारत के आकाश को गुंजायमान करना होगा कि गीदड़-सियार का नामों निशान न मिले ; अग्निमंत्र से अभिमंत्रित गगन-भेदी तुमुल-नाद से उद्घोषणा करना होगा उस प्रिय आन्दोलन - जनांदोलन का जिसका परिपथ पूरा राष्ट्र हो ; गाँव-गाँव, शहर-शहर, गली-गली जिधर देखो भारत निर्माण की सिंह-गर्जना हो ! मात्र भारत के पुनर्निर्माण की सिंह-गर्जना ! परिवर्तित कर दो भारत को पूर्ण प्रजातंत्र में , बदल दो भारत को सम्पूर्ण गणतंत्र में , गढ़ लो अपने भाग्य को , रच दो अपनी मानवता को  !!

जय-हिंद ! जय-भारत !                                                                                                                       इन्कलाब-जिंदाबाद !
वन्दे-मातरम !!                                                                                                                                    भारत माता की जय !!


Friday, September 7, 2012

AANDOLAN


जो यंत्र घिस गया है उस यंत्र को बदल दो !
                           जो भ्रस्ट हो गया है उस तंत्र को बदल दो !!

धरती का कोई भी भू-भाग एक या दो महान पुत्रों को जन्म देने पर गर्व तो कर सकती है पर वह देश ही महान होने की श्रेणी में गौरव पा सकता है जिसके आम जनों तथा सम्पूर्ण जनतंत्र का जीवन-स्तर जिसका बच्चा-बच्चा शिक्षित, पूरा समाज स्वस्थ और सम्पूर्ण राष्ट्र समृद्ध हो तथा देश के आर्थिक उन्नति-प्रगति में निमग्न हो !!  

सर्वप्रथम मैं आपलोगों को अपनी शुभकामना और बधाई देना चाहूँगा कि अपनों के छल-कपट से पल-पल मरते-छीजते भारतवर्ष को जगाने और उठाने की आपलोगों ने  जो अनथक कठिन परिश्रम किया है वह भारतवर्ष के एक अरब पच्चीस कड़ोड़ जनता के मन में एक आशा और विश्वास से भर दिया है, अपने देश के प्रति श्रद्धा से अवश्य भर दिया है कि भारत माता कि कोख में बहुतेरे लाल हैं जो उसकी रखवाली के लिए अपनी प्राणों की भी बाजी लगा कर माँ के गौरवशाली प्रतिष्ठा पर कभी आंच नहीं आने देगा ! एक बार पुनः पुनः आप सभी को मेरी लाख-लाख बधाईयाँ !!

परन्तु दैत्यों-राक्षसों-पापियों से लड़ना और जीतने से पहले विखर जाना उन बहादुर योद्धाओं के लिए नहीं होता जो मातृभूमि की रक्षा में उठ खड़े होते हैं. गीता प्रवचन में भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं अपने श्रीमुख से अर्जुन को कहा है " तीन प्रकार के मनुष्य स्वयं ही मेरी शरण को प्राप्त करते हैं ; एक तो वे जिनका हाथ मैं स्वयं पकड़ लेता हूँ ; दूसरा वह जो मेरे सिवा धरती पर अन्यथा कुछ नहीं जानता मेरी भक्ति करता हुआ मात्र मुझे ही जपता है ; तीसरा वह जो मातृभूमि की रक्षा में अडिग बलिदान करने का प्रण कर लेता है !" फिर भी श्री कृष्ण ने अर्जुन तथा पांडवों को रणक्षेत्र में विजय प्राप्त करने के लिए अंतिम सफलता तक राजनीति और कूटनीति का पाठ पढ़ाते रहे ताकि भारतभूमि से पापियों का नाश हो सके भारत निष्कलंकित हो सके ! आज यह बात फिर महत्वपूर्ण हो उठा है क्योंकि दुश्मन से लड़ना और अपनों से संघर्ष करना दो अलग-अलग रणनीति पर निर्भर करता है, एक तरफ आप सभी राजनीति और कूटनीति के अनुभव रिक्त योद्धा हैं तो सामने कंस और रावण सरीखे राजनितिक युद्ध कौशल के पारंगत पापी दैत्य-दानव है जिन्होंने अपने ही देशवासियों को पीड़ा, कष्ट और उत्पीडन से पीड़ित कर स्वयं पर दम्भित हो राज्य-सत्ता का अपहरण कर रखा है. 

इन राजनीति के धुरंधरों का राजनितिक कौशल और षड्यंत्र ही है कि ये बड़ी आसानी से भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना आन्दोलन के सम्पूर्ण नेतृत्व को तॉप के तोपची की भूमिका से भटकाकर तॉप के सामने ला खड़ा कर दिया है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारतवर्ष की हुंकार को भांप कर इनकी चाल आन्दोलन की धार को कुंद करने की हो गयी. संसद और राजनीति की चुनौती देकर राजनितिक प्रतिद्वंदिता और प्रतिस्पर्धा में उतार दिया है इसे समझना होगा ? राजनीति की कुटिल योजना के तहत इनलोगों ने आन्दोलन की धार को मार्ग से भटकाने का काम किया है. राजनितिक विकल्प के प्रति आन्दोलनकारियों को उकसाकर राजनितिक भेड़-चाल में शामिल कर इनलोगों ने अपने विरुद्ध उठ रही भारत की ज्वाला को शांत करने की कुटनीतिक सफलता प्राप्त कर लिया है. सभी राजनितिक दलों ने अपने विपरीत भारतीय जनता को पाकर राजनीति की शातिर चाल से अन्ना-आन्दोलनकारी शक्तियों के आग में पानी तो अवश्य ही डाल दिया है, आन्दोलन के लपलपाते मशाल को अवश्य बुझा दिया है. इनके इन षड्यंत्रों का सिंहावलोकन करना होगा, आन्दोलन का सूक्ष्म विश्लेषण कर इसे पुनर्जीवित करना होगा ; आन्दोलन की आग को जलाए रखना होगा , इसकी उग्रता-उष्णता पर ही लक्ष्य निर्धारित होगा, सिंह की गर्जना से भ्रष्टाचारियों की नींद को फिर से उड़ाना होगा, ज्वाज्ल्य्मान आन्दोलन की तपिश को सम्पूर्ण भारतवर्ष के गाँव-गाँव और चौपाल-चौपाल तक, सुदूर देहात तक, आम आदमी तक, एक-एक आदमी तक, गरीबों की झोपड़ियों तक, किसानों के मचानों तक फैलाना होगा और तब तक विश्राम नहीं जबतक लक्ष्य की प्राप्ति न हो ; लक्ष्य निर्धारित कर नगारे की तुमुल ध्वनि से सत्ता पर काबिज कुटिल-कलुषित लोगों में कम्पन पैदा करना होगा ! राजनितिक विकल्प बनाने की हड़बड़ी और भटकाव से अभी बचते हुए इनके कुटनीतिक चाल के मकड़-जाल में फंसना नहीं होगा : अभी आन्दोलन की असामयिक पड़ाव से बचना होगा. राष्ट्रिय अग्नि-मन्त्र से अभिमंत्रित साहस के साथ आन्दोलन के अंतिम लक्ष्य को पाना होगा, आन्दोलन अभी शैशवावस्था की है इसे हृष्ट-पुष्ट करना होगा, मजबूत बनाना होगा, लोहे की पुट्ठों के साथ इस्पात के स्नायु विकसित कर अन्नंत उत्साह, अन्नंत शक्ति, अन्नंत धैर्य और अन्नंत विश्वास से आन्दोलन के अलख को जगाये रखना होगा ! सम्पूर्ण भारतवर्ष के जय-घोष पर आन्दोलन की चरम परिणति सर्वग्राह्य राजनितिक विकल्प बनाने में होगी जिसके लिए किये जा रहे सार्थक परिश्रम की आग में अभी और आहुति डालने की आवश्यकता है !

जागो भारत जागो, जागो भारत की सिंह-गर्जना से सम्पूर्ण भारत के आकाश को घोषित जनक्षेत्र  में परिवर्तित कर देना होगा ! देश में चल रहे अनेकानेक ज्वलंत समस्याओं के विरुद्ध अनेकानेक जन-आन्दोलनों को एक मंच पर लाना होगा, सारे आन्दोलनों को सामूहिक नेतृत्व के साथ भ्रष्टाचार के विरुद्ध केन्द्रित लक्ष्य निर्धारित कर आन्दोलन की चरम परिणति से सुदृढ़ राजनितिक विकल्प तैयार कर भारत का पुनर्निर्माण-नवनिर्माण करना होगा ; अभेद्य जन-क्रांति की सिंहनाद की दुन्दुभी से भारत के आकाश को हलचल कर देने का तत्काल एकमात्र लक्ष्य ही अभी निर्धारित करना प्राथमिक होगा, भारत के सुदूर देहात और ग्रामीण अंचल अभी पूर्ण रूप में आपके आन्दोलन के हितार्थ से परिचित नहीं उनके भ्रमित होने से रोककर क्रांति से जोड़ना होगा : इसके सिवा अभी कुछ भी नहीं कोई विश्राम नहीं कोई भटकन नहीं जबतक कि भारत की हुंकार से पापियों-दुष्टों की नींद न उड़ जाए, इनके खूरेंजी चंगुल से भारत स्वाधीन न हो जाये !! 

पूर्वजों के आशीर्वचनों का स्मरण कर माँ भारती के नाम की, के नव-निर्माण की शांतिपूर्वक घोषणा कर देना होगा कि राष्ट्रिय भारत निकल पड़े खेतों-खलिहानों और मेड़ो से या कि निकले पगडंडियों से, निकल पड़े कि हलवाहे के हल से, कि निकले किसानों के मचानों से, नवीन भारत निकल पड़े कि झाड़-झंखाड़ों-पेड़ों और पहाड़ों से, निकल पड़े कि नदियों और तालाबों से,  नूतन भारत निकल पड़े कि तिरष्कृत और दलितों की झोपड़ियों से, कि निकल पड़े हंसिये और कुदालों से, निकले चाहे भारत दर्जी के मशीनों से कि लोहारों की भाथियों से, निकले चाहे कि नया भारत कल-कारखानों से कि निकले चाहे हलवाईयों की मिठाइयों से या कि आइसक्रीम पार्लरों से, निकले चाहे कि नाई की हजामत से या कि तो जूतों की दुकानों से, नूतन-नवीन भारत निकले आई० टी० पार्कों से या कि मालों और काम्प्लेक्सों से, निकले युवा भारत कि स्चूलों और कालेजों से, कि निकले संतों-कवियों की कुटियों से, तो निकले लेकिन निकले नवजागरण का लेकर सन्देश सभी खाकर शपथ-मन्त्र  भारतीय राष्ट्र के नवनिर्मानों का !


अतएव, सभी भावी देशभक्तों, भावी देशप्रेमियों, भारत की भावी नव-निर्माणकारी शक्तियों को एकत्र होकर इर्ष्या-विद्वेष का त्याग कर अनुभव करना होगा, क्या हम अनुभव करते हैं कि देवता और ऋषियों की कड़ोड़ के कड़ोड़ संतानें आज फिर पशु-तुल्य हो रही है ? क्या हम ह्रदय से यह अनुभव करतें हैं कि भारतवर्ष में कड़ोड़ के कड़ोड़ आदमी भूखों मर रहे हैं और लाखों-कडोदों लोग शताब्दियों से ऐसे मरते आ रहे हैं ? कडोदो-कड़ोड़ युवक-युवतियां रोजगार की प्रतिस्पर्धात्मक प्रतिद्वंदिता के चक्रव्यूह में फंस कर अपनी कभी हल न होने वाली व्यथा से छटपटा रहे हैं. आवश्यकता से कहीं अधिक अन्न उपजाने के बाद भी हम भूखे हैं महंगाई की मार से बेचैन हैं, धन की जमाखोरी चरम पर है, पैसों की कालाबाजारी चरम पर है, राज्यकोष का लूट है-बंदरबांट है, कालाधन विदेशी बैंकों की शोभा बढ़ा रही है, हमारा काला-धन विदेशों में विकास कर रही है , दलितों की झोपड़ियाँ अन्धकार में है, बेसहारों के तन पर धोती नहीं है, अशिक्षित- तिरस्कृतों का जीवन नारकीय बना हुआ है,  फिर भी उन्माद है_शोषक और सामंतों का , अट्टहास है दिन-दिन बढती महंगी अर्थ व्यवस्था पर ; हास्य है उन रहनुमाओं का दलितों की झोपड़ियों को जानने की ; तो कौतुक है योजनाकारों का श्रमिकों को बत्तीस रूपये की पारिश्रमिक मिलने की ; संतुष्टि है सामंती नेतृत्वों को उन कराहते-पीड़ित मानवता पर_ तो तो क्या हम कभी अनुभव करते हैं कि अज्ञानता के काले बादलों ने पुरे भारतवर्ष को एक बार पुनः ढँक लिया है ? इन सबका अनावरण करना होगा हमारे भोले निरक्षर बेसहारे दुखी पीड़ित देशवाशियों को कि उनके साथ क्या-क्या हो रहा है ! क्या यह सब सोच कर हम कभी बेचैन होते है ? क्या यह भावना हमें कभी निद्राहीन करती है ? क्या यह भावना कभी हमारे रक्त के साथ मिलकर हमारी धमनियों में बहती है ? क्या यह कभी हमारे दिल की धड़कन बनती है ? क्या यह कभी हमें पागल बनाता है ? क्या कभी देश कि इतनी दुर्दशा हमारे चिंता का कारण बनी है ? और क्या हम इस चिंता की आत्मानुभूति कर अपने-पराये, अपना नाम-यश, पुत्र-परिवार, धन-सम्पति, यहाँ तक कि अपने शरीर तक की सुध को विसार दिया है ? यदि अब हम इस आत्मानुभूति का अन्तःस्थल से अनुभव करते है तो ही हम देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रख लक्ष्य को पाने का दावा कर सकते है -- हाँ, केवल पहली सीढ़ी होगा यह !  

यह यहाँ और भी महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र ने १९७४-७७ के उस सम्पूर्ण-क्रांति की राजनितिक असफलता को देखा-झेला है जिसका नेतृत्व एक अनुभवी राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी श्री जय प्रकाश नारायण की अगुवाई में हुआ था. हम आपातकाल की दानवी अत्याचार के साथ-साथ शोषण-दमन-उत्पीडन को तो डायीलिसिस के मृत्यु-शैया पर अंतिम सांस लेता हुआ उस अनुभवी कृशकाय बृध हाथ को भ्रस्ताचार के विरुद्ध उठ खडा होते हुए तो अवश्य देखा है फिर देश के युवा शक्ति के समस्त साहस और जोश को भी लगा कर उस लोकनायक की परिपक्व, संघर्षशील और अनुभवी नेतृत्व के कारण आन्दोलन के लक्ष्य को पाने तक झेल गए थे जब हमारे मौलिक अधिकार तक को शासन-सत्ता ने बंधक बना रखा था, फिर भी हम पूर्ण रूपेण असफल ही हुए थे ; उस क्रांति की फलाफल देश को प्रदान करने में हम असमर्थ हुए थे ! आज जे० पी० के सभी अग्रणी अनुयायी सत्ता पाते ही भ्रस्ताचारी हो कर सी० बी० आई० की घेरे में रहते हुए भी राज्य-सत्ता से अनैतिक कवच पाकर देश की राजनीति के धुरंधर पुरोधा और जाबांज शासक बने बैठे हैं .

हम पल-पल सड़ते-गलते स्वाधीनता के अग्रणी दल को भी देख रहे है जिसकी अगुआई महात्मा गांधी ने किया था अपना नेतृत्व देकर, स्वतंत्र भारत के लिए सफलता की सीढ़ी को पार किया था. पिछले पैंसठ वर्षों में अधिकाँश समय से वह दल ही राज्य सत्ता पर अपना अधिकार सिर्फ इस लिए रख सका है सका है क्योंकि गाँधी ने इसे सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ा कर परिपक्व करने का असफल प्रयास किया था ताकि भारत को एक लोकतान्त्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष स्वाधीनता प्राप्त हो सके. परन्तु हुआ उसका उल्टा ही यह दल आज इस देश का सबसे बड़ा अनाचारी-व्यभिचारी-अत्याचारी शोषक समूह बना बैठा है जो वंशवाद, निरंकुशता और सामंतवाद का पालक पोषक बनकर राज्य-सत्ता का अपहरण कर पूर्ण रूपेण भ्रस्ट हो सत्ता-सुख भोग रहा है. 

फिर हमने अनेकानेक अन्य आन्दोलनों को भी भ्रस्ट, अत्याचारी और बेईमान होते भी देखा है ; समाजवादी आन्दोलन, साम्यवादी आन्दोलन, सर्वहारा की क्रांति और लाल सलाम के अंतिम आदमी के लिए रक्त-रंजित आन्दोलन से लेकर अनेकानेक स्थानीय-क्षेत्रीय-प्रांतीय   -प्रादेशिक क्रांति को भी देखा-झेला है. क्रांति और आन्दोलनों की आग से निकले लोग आज राजनीति को बंधक बनाए रखने के ठेकेदार हो गए हैं, आन्दोलनों और क्रांति से निकले तपे-तपाये लोग भी राज्य-सत्ता के सिंहासन पर पहुँचते ही भ्रस्ट हो गए, बेईमान हो गए, वंशवादी हो गए, सामंती हो गए और निरंकुश सत्ता-सुख भोगने में लिप्त होकर जनता-जनतंत्र को भूल गए. कारण क्या है मूल में जाना होगा, जड़ तक अन्वेषण करना होगा, फिर भेदना होगा उस कवच-कुंडल को जो आततायिओं, अनाचारियों, व्यभिचारियों, भ्रष्ट, बेईमान, क्रूर, हिंसक और अधिनायकवादी राज्य-सत्ता और शासन-पद्धति को स्वाधीनता के बाद भी फलने-फूलने का अवसर तो प्रदान करती ही है साथ में अनेक स्तरों पर सुविधा-सुरक्षा-संरक्षा का कवच भी प्रदान करती चली आ रही है, प्रजातंत्र के असंवैधानिक, अनैतिक और अमानवीय स्तर पर जघन्य कृत्यों को वैधानिक आवरण प्रदान कर बचाती रही है. विश्व के सबसे बड़े भारतीय-लोकतंत्र को प्रदूषित कर घोर दुर्गंधों से भर दिया है. 

अनैतिक और असंवैधानिक कृत्यों को विधि-व्यवस्था में दोष होने के कारण ही इन जघन्य कार्यों को प्रोत्साहन तो मिलता ही है जहाँ दोष के मुख्य कारण है विधि-नियम-अधिनियम तथा इसके धारा-उपधाराओं का प्रजातान्त्रिक नहीं होना है , आज देश भर में अनैतिक और अपराध एक संगठनात्मक स्वरुप में विकसित हो गया है, झूठ-चोरी-बेईमानी-गबन-घपले-घोटाले और लूट-हत्या-हिंसा-बलात्कार करना सामूहिक और सांगठनिक हो गया है. सभ्यता के शिखर पर पहुँच कर भी देश का राजनितिक नेतृत्व मनुष्य से मानव और फिर दानव बन गए हैं 1 वैसे तो सत्य-झूठ, हिंसा-अहिंसा, नैतिक-अनैतिक अथवा भ्रस्ताचार-व्यभिचार के समीचीन पाठ हमारे देश में तो माता के गर्भ से ही माता-पिता-परिवार, शिक्षक-गुरु-संत, समाज-राज्य-धर्म और विधि-विधान के द्वारा सिखाया जाने लगता है फिर संत-समागम-प्रवचन के परोपकारी उपदेश को हम बचपन में ही जान जाते हैं फिर भी आज पूरा का पूरा भारत वर्ष लगता है अनैतिक और जघन्य कार्यों को करने में ही सुख पाता है. जितने भी सरकारी या गैर सरकारी धनी अथवा प्रतिष्ठित व्यक्ति-समूह-संगठन है वह उतने ही काले कारनामों से प्रसिद्धी पाने की कोशिश करता हुआ दीखता है, बिना कोई मेहनत-परिश्रम किये ही बैठे-बैठे ये लोग अपार धन के स्वामी बने बैठे हैं, प्रतिष्ठा इनके कदम चूम रही है पर क्यों .... ??

पर क्यों ? क्यों मेहनत-मजदूरी-परिश्रम करने वालों के तन पर कोई कपडा नहीं, थाली में रोटी नहीं है, सर पर फूस की छाया भी नहीं यहाँ तक कि रात को रौशनी भी मयस्सर नहीं, शिक्षा नहीं, स्वास्थ्य नहीं, रोजी नहीं, रोजगार नहीं अभाव ही अभाव, कष्ट ही कष्ट, पीड़ा ही पीड़ा झेलकर ये लोग अकारण ही काल कवलित हो जाते हैं ? कैसी बिडम्बना है यह, स्वाधीन भारत का कैसा सपना है यह, कैसी आर्थिक स्वतंत्रता है, यह कैसी आर्थिक विषमताओं ने राष्ट्र को बाँट रखा है एक तरफ गगनचुम्बी सम्पतियों के स्वामी की अठखेलियाँ, अट्टहास, अय्याशियों में तार-तार होती इज्जत-आबरू दूसरी तरफ अभाव से तार-तार होता सारा मानव जीवन ! कहाँ है भारत के इंडिया का चरित्र, कहाँ है भारत की करुणा-दया ? पल पल मरते मानव जीवन के लिए कोई प्रयास नहीं, कोई सत्य वचन का पाठ याद नहीं, कोई सत्संग का प्रवचन नहीं ; है तो सिर्फ इतना है _ है सिर्फ प्रतिस्पर्धा, प्रतियोगिता और होड़ असीमित धन पाने का और इक्कठा करने का फिर सबसे बड़े धन का स्वामी होने का कोई उचित-अनुचित का ध्यान नहीं ; कोई नैतिक-अनैतिक का ज्ञान नहीं ; कोई कानूनी-गैरकानूनी का भान नहीं सब के सब इंडियन बन इस अंधी दौड़ में शामिल हैं कि भारत का सारा धन-सम्पतिऔर सत्ता मेरी हो जाये !   

पर क्यों ? पर इस क्यों का उत्तर हमें खोजना है ! हमें तह तक जाकर तलाश करना है इस क्यों का ! खोज को केन्द्रित करना होगा उस दोष का जो रोग के मूल में है, नित्य निरंतर पतन के मुख्य कारक पर ध्यान देना होगा ! आन्दोलनों और क्रांति से निकले लोग भी सत्ता पाते ही  मदांध हो भ्रस्ट और बेईमान, अनाचारी और ऐय्याश, क्रूर और हिंसक तथा खूनी और बलात्कारी क्यों हो जाते हैं ? शासन-सत्ता पर पहुँचते ही संवेदनशील नेतृत्व भी क्यों इस गंदगी का शिकार हो शोषण-दमन-उत्पीडन पर उतारू हो जाते हैं ? क्यों गणतंत्र के समर्पित पुरुषार्थ भी शासन-तंत्र का अंग बनते ही जनता से वादाखिलाफी कर सामंतवादी, अधिनायकवादी और वंशवादी हो प्रजातंत्र से धोखा कर जाते है ? इस क्यों का हमें तथ्यात्मक विश्लेषण और अन्वेषण कर निदान करना होगा जो इस रोग के मूल में है !

तो निश्चय ही हमें लगता है कि हमने राजनितिक स्वतंत्रता-स्वाधीनता तो पा लिया है पर हम विदेशी तंत्र के आकर्षण को अब-तक पाले-पोशे रखे हैं, उस विदेशी शासन व्यवस्था को ही प्रजातंत्र का आधार मान लिया है 1 स्वाधीनता के बाद भी हमने अपना स्वहित स्वेदेशी लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था को रचने-गढ़ने में नाकाम रहे हैं 1 हमने अनेकानेक पश्चिमी देशों के निति-नियम-अधिनियम, कानूनी धारा-उपधाराओं को ही अंगीकार कर अपने प्रशासन-तंत्र का आधार बना लिया साथ ही साथ स्वाधीनतापूर्व विदेशियों अथवा अंग्रेजो के शासन-तंत्र को ही अपने लोकतान्त्रिक शासन-प्रणाली के लिए हुबहू अधिनियमित कर लिया 1 स्वाधीनता के पैंसठ वर्षों के बाद भी हम विदेशी  नियम-कानून  और  निति-पद्धति  को  स्थानापन्न  करने  में समर्थ  नहीं  हो  सके हैं 1 हमे  स्वतंत्र  हुए पैंसठ  वर्ष  बीत  गए  परन्तु  आज  भी  हम  1730-1800 / 34 / 37 / 50/56  की  अंग्रेजों  के  बनाए नियम-कानूनों  को  ही अपने  कानून  का  आधार  बनाये  हुए  है .

स्वतंत्र भारत में भी हम उन्हीं विदेशी निति -नियम, कानून -काएदे पर आधारित संविधान-व्यवस्था को अपनाने पर बाध्य हो कर रह गए जिसे उसी समय भारतीय  लोकतान्त्रिक प्रशासन-तंत्र में विकसित कर विदेशी शासन व्यवस्था को परिवर्तित कर देना था, परन्तु हम अच्छे नियम होने के नाम पर विदेशी नियम-अधिनियम, धारा-उपधाराओं तथा नियम-कानूनों के साथ-साथ अनेकानेक अन्य देशों-विदेशों के शासन-व्यवस्थाओं की धाराओं को अपने मूल संविधान में समाहित कर इसका हिस्सा बना लिया ; संविधान का बारम्बार संशोधन का भी मुख्य कारण होने के साथ-साथ इस  नक़ल की गयी शासन और प्रशासन-तंत्र तथा अंग्रेजी-विदेशी शासन का अनुपालन ही स्वतंत्र भारत के प्रजातांत्रिक राज्य-व्यवस्था को कलुषित करती रही है ; हमारी राज्य-व्यवस्था और प्रशासन-तंत्र विदेशियों के इन व्यवस्थाओं का अनुरक्षण और अनुपालन कर भारतीयता के मूल भावना को आहत कर रही है. यह शासन-व्यवस्था और प्रशासन-तंत्र जो शासकों के हित में, शासकों की संरक्षा के लिए, शासकों की सुरक्षा के लिए तथा शासकों के द्वारा भारत की जनता पर लादी गयी थी वह स्वाधीन भारतीय परिपेक्ष्य में कदापि और किसी भी प्रकार से भारत की जनता का , जनता के  लिए और जनता के द्वारा भारतीय लोकतंत्र-प्रजातंत्र के हित-लाभ के पोषक सिद्धांतों के अनुरुप और अनुकूल नहीं बन पाया था .

सभी   विदेशी  शक्तियां  हमारे  शासक  थे  और  हम  शासित ; सभी  नियम  और  अधिनियम , कायदे और कानून, धारा और उपधारा विदेशी शासन व्यवस्था के पक्ष में, शासकों के हित-लाभ के लिए, शासकों  की संरक्षा और सुरक्षा के लिए बने थे न कि शासित जनता के लिए ; हम पर वे राज करते थे हमारा शोषण करना  उनका धर्म था, हम पर अत्याचार करना उनका अस्त्र था और सब कुछ सहना हमारी नियति थी हमारा भाग्य था उनके अत्याचार, अनाचार, क्रूरता, हिंसा को  अन्नंत काल तक सहने रहने को हम बाध्य थे 1 प्रजा  के  किसी  विरोध  को  निर्ममता  से  दमन  के  लिए  ही  इनकी  पुलिस और  फ़ौज  तैनात  थी  न  कि  जनता की सुरक्षा के लिए सभी ; सुरक्षाबल जनता के किसी कोप भाजन को रोकने के लिए गठित थी न कि जनता को सुरक्षा प्रदान करने के लिए .
परन्तु दुःख और दुर्भाग्य तो अब है कि हम स्वतंत्र भारत में भी एक सम्पूर्ण लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अनुरूप-अनुकुल स्वहित स्वदेशी शासन तंत्र गढ़ने -रचने में  असफल रहे है जनहितकारी हो, जो भारत के वातावरण और परिस्थितियों के अनुकूल हो ; जो प्रजातान्त्रिक भारत के जनमानस को ध्यान में रख कर उसके हित  में उसके मान्यताओं-आदर्शों, रीति-रिवाजों और संस्कृति-संस्कार को कहीं से भी क्षति पहुंचाए बिना शुलभ, उपयुक्त और लाभकारी रूप में उपलब्ध हो 1

स्वतंत्रता  प्राप्ति  के  समय  हम  लोकतान्त्रिक  भारत  के   अनुरूप  जिस  स्वहित  स्वदेशी  शासन  तंत्र  को  गढ़ने -रचने  तथा  उसके  निर्माण   करने  में  सर्वथा  विफल  हो  गए  थे  उसके  निर्माण  होने   पर  ही  प्रजातंत्र  की  वास्तविक  हित-लाभ की उपलब्धता  जनता  को  हो  सकेगी . अतैव , विदेशी  नियम -कानून  निति  नियम  पर  आधारित  राज्य  व्यवस्था  के  अँधा  अनुकरण  और  अनुपालन  करने  से  जो  हमारी  अपनी  राज्य -सत्ता  अनुत्तरदायी , अलोकतांत्रिक , अकर्मण्य , चोरी बेईमानी, भ्रस्ट, अत्याचारी, व्यभिचारी, दम्भी, निरंकुश, वन्स्वादी, सामंतवादी, निर्मम और क्रूर हो गयी है उसके पुनर्निर्माण के लिए एक शसक्त सम्वैधानिकेत्तर परिवर्तन की आवश्यकता है. अन्यथा प्रजातंत्र  की प्रजा; जनतंत्र  की जनता और गणतंत्र की गनपुरक के बिना विदेशियों की भांति ही हमारी वर्तमान राज्य-सत्ता की राज्य-व्यवस्था क्रूरतम होगी जिसे न तो आम जन की कोई परवाह होगी न तो उसके हित में कोई निर्णय होगा. विदेशी शासकों की तरह अत्याचार-अनाचार; भ्रस्टाचार-व्यभिचार; चोरी-बेईमानी; शोषण -दमन तथा गोली-लाठी तो आम जनता को सुलभ होगी परन्तु सुविधा-सुरक्षा; भोग-विलास; धन-संपदा पर एकाधिकार, राज्य-कोष का उपभोग; एशो-आराम-अयिआशी शासन करनेवालों का मुख्य ध्येय होगा !


भारतीय जनतंत्र  की अत्यंत आवश्यकता है ऐसे राजनितिक शक्ति  की जो विदेशी भाषा, विदेशी शासन-पद्धति, विदेशी नियम-कानून, विदेशी धारा-अधिनियम, विदेशी तौर-तरीके, यहाँ तक कि गुलामी के प्रतीक-चिन्हों, खेलों और रहन-सहन तक सिमित कर व विदेशी शासन-पद्धतियों का परित्याग कर भारतीय जनतांत्रिक परिस्थिति और वातावरण के अनुकूल जनहितकारी जनता के लिए, जनता का और जनता के द्वारा एक स्वहित स्वदेशी शासन-तंत्र एवं राज्य-सत्ता जो जन-जन को सर्वथा सुलभ हो; वह जनता के प्रति पूर्ण उत्तरदायी हो न कि सत्ता के प्रति; वह जनता की सुरक्षा-संरक्षा, उन्नति-प्रगति, विकास और समृधि तथा जनता के लिए बुनियादी आवश्यकता शिक्षा-स्वास्थ्य ; रोटी-कपडा-मकान को उपलब्ध कराने में अग्रसर और तत्पर हो ऐसे विधायकों-सांसदों, सरकार और शासन का आईये हम सब मिलकर पुनर्निर्माण करें और भारतवर्ष की विश्व पटल पर गिरती हुयी गरिमा और गौरव को पुनार्प्रतिष्ठापित करें  !!

आज भारत में अपनी राष्ट्र-भाषा हिंदी / देवनागरी में बात करना हीनता का परिचायक है, यहाँ तक कि भारत में माता-पिता अंग्रेजी में बात करने वाले और अंग्रेजी खेल खेलनेवाले अपने बच्चों पर गौरव का अनुभव करते है. हमारी प्रजातांत्रिक सरकार की सभी कार्य-प्रणालियाँ, सभी प्रमुख मंत्रीगण, सभी बुद्धिजीवी समाज, सभी कलाकार, सभी बौधिकताएं आज अंग्रेजी का दास है, हर कोई अंग्रेजी भाषा के सामने नतमस्तक है, हमारे सभी निति-नियम, कायदे-क़ानून, रीति-रिवाज, रहन-सहन यहाँ तक की सामाजिक और पारिवारिक क्रिया-कर्मों ने भी अंग्रेजी और अंग्रेजों का अन्नंत काल तक के लिए दासत्व को स्वीकार करता दीखता है ; अंग्रेजी शासन-पद्धति के अनुशरण करते रहने से हमारी प्रजातान्त्रिक सरकार भी जनता के साथ विदेशी शासकों सा व्यवहार करने में ही अपना हित साधती है १ हमें इन सब बातों का भी गहन अध्यन पश्चात ही आन्दोलन के  मुख्य धारा को सुनिश्चित कर आगे बढ़ना होगा तब ही हम तीसरी-क्रांति अथवा सम्पूर्ण-क्रांति के अंतिम ध्येय को पाने की परिकल्पना को साकार करने में सक्षम और समर्थ हो सकते हैं  !! 

यहाँ यह आवश्यक होगा कि वे तीन आवश्यक तथ्य जो किसी भी व्यक्ति को, अथवा देश को महान बनाता है आन्दोलन के मूल चरित्र में समाविष्ट व समाहित करना होगा यथा :
क)   अच्छाई और भलाई करने में विश्वास 
ख)   संदेह और इर्ष्या का सम्पूर्ण अभाव  
ग)    जो अच्छा करना चाहते है अथवा करने में अग्रसर हैं उन्हें सहायता करना !

अंत में, प्रत्येक महान कर्तब्य के लिए इर्ष्या एवं अहम् भाव का पूर्ण त्याग होना सफलता को सुनिश्चित कर बाधाओं से निष्कंटक बनाता है, अतएव प्रबल दोषों को दूर कर प्राणपन से आन्दोलन के लक्ष्य पर केन्द्रित हो कर संगठन की शक्ति पर सम्पूर्ण विश्वास और श्रद्धा रखते हुए पुरे देशवासियों को जाग्रत और अवगत करना होगा कि राष्ट्र को अब और अधिक अवनति के मार्ग पर चलते जाना प्रजातंत्र के लिए घातक हो गया है 1 भारत की   आनेवाली पचास पीढियां हमारा मुँह ताक रही है 1 क्षेत्रीयता, धार्मिक असहिष्णुता, आर्थिक असामनता, विशिष्टता और विशेषाधिकार, शासक की भूमिका में जन-प्रतिनिधि, अनुत्तरदायी शासन व्यवस्था, अघोषित धन संग्रह आदि आदि अनेकानेक आम प्रचलित बुराईयों के सभी मार्गों को अवरुद्ध कर नयी चेतना से देश का राजनितिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सम्पूर्ण प्रजातान्त्रिक पद्धति का दोष रहित विकास करना ही आन्दोलन का एकमात्र लक्ष्य है 1 साथ ही साथ सम्पूर्ण भारतवर्ष में आन्दोलन को अंतिम से अंतिम व्यक्ति तक को जोड़ने की आवश्यकता निर्मित करने का दृढ संकल्प लेकर सारे भारतीय आकाश को भारत माता की जय ; बन्दे मातरम् के जय घोष को गुंजायमान करने का प्राथमिक कर्तव्य ही राष्ट्र का पुनर्निर्माण करने में सक्षम और समर्थ होगा !    इति ........

बन्दे मातरम् ; सुजलां सुफलां शस्य श्यामलां मातरम्.... !                                                      YANG BHARAT 

  वन्दे मातरम !!                                                                                                                           एक राजनितिक आवश्यकता .... 

भारत माता की जय ; जय हिंद !!                                                                                          YUVA BHARAT 

Tuesday, January 31, 2012

MAHATMA GANDHI

३१ जनवरी १९४८ को महात्मा गाँधी की सांसारिक हत्या तो मात्र एक गोली से हो गयी परन्तु बापू भारतीय-राष्ट्र ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण धरती पर अजर-अमर हो गए, उन्हें अमरत्व की प्राप्ति हो गयी I हे राम ! हे राम ! हे राम के मंत्र से गाँधी अमर हो गए ; अमरत्व को प्राप्त कर लिया उन्होंने ! फिर भी मात्र एक वर्ष पूर्व ही भारत हजारो-हजार साल की दासता और विदेशी उत्पीडन से मुक्त हुआ था - गाँधी की हत्या स्वतंत्र भारत की बिडम्बनापूर्ण कुकृत्य की पहली घटना थी, यह दुर्भाग्य ही था कि सत्य और अहिंसा के अनुयायी-पुजारी का प्राणांत हिंसा से हुआ और अभी-अभी स्वतंत्र हुआ भारत अपने पुनर्निर्माण के लिए बापू का सान्निध्य और स्वदेशी मार्गदर्शन से वंचित रह गया i 
भगवान बुद्ध की सत्य और अहिंसा तथा स्वामी विवेकानंद की त्याग और सेवा से अभिमंत्रित बापू के जीवन का अंत हिंसा से होगा यह बापू के दृढ-निश्चयी विश्वास का कदापि एक दुखद पहलु अवश्य है i महात्मा गाँधी का जन्म भारतीय इतिहास के इस अकाट्य सत्य को स्वीकारती है कि पृथ्वी पर भारत ही एकमात्र ऐसा पुण्य-भूमि है जहाँ ऋषियों-मुनियों, संत- महात्माओं का जन्म युगों-युगों में बारम्बार होते रहते हैं i ईश्वर या प्रकृति की पुनरावृति संतों और महात्माओं के रूप में इस धरती पर हमेशा ही होते आये हैं i महात्मा गाँधी जैसे संतो के प्रादुर्भाव ने तो यह प्रमाणित ही किया है की भारत वह पुण्य-भूमि है जहाँ युगों-युगों से मानव-मूल्यों की मौलिक विचारधारा की सरिता भारतवर्ष ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भूगोल को शांति-सद्भावना और वैश्विक भाईचारे के लिए अपने सिधान्तो, विचारों और दर्शनों से सम्पूर्ण विश्व को अनुप्राणित करती रही है i आज महात्मा गाँधी पोरवंदर, गुजरात में जन्मे मोहनदास करमचंद गाँधी नहीं रहे वरन वे एक विचार हो गए - वे एक सिधांत हो गए - एक दर्शन हो गए और सर्वोपरि की वे एक धारा बन गए !
गांधीवाद - सत्य और अहिंसा, त्याग और सेवा के कर्मयोग का एक अद्भुत मिश्रण जहाँ परदुख- कातरता ; दूसरों की पीड़ा को आत्मसात करना-वैष्णव हो जाना - वैदिक हो जाना गांधीवाद का मर्म है ! गांधीवाद एक दर्शन है एक सिधांत है एक विचारधारा है मानवता को धारण करने का - प्राकृतिक पशुवत स्वभाव से मनुष्यता प्राप्त करने के संस्कार का दर्शन है गांधीवाद ! व्यक्तिगत जीवन हो या पारिवारिक ;सामाजिक हो या राजनैतिक ; आर्थिक हो या धार्मिक सभी कुछ मानवतावादी हो यही है गांधीवाद !
                                                                                                                     क्रमशः 







Sunday, August 21, 2011

ANNA KA ANSHAN

परम श्रधेय श्री अन्ना जी ,
                     भूमिस्थ प्रणाम,
         सर्वप्रथम_ पांच दिनों के अनशन के बाद भी हमारे जन- क्रांति नायक पूर्णरूपेण स्वस्थ हैं यही हमारी ईश्वर से प्रार्थना है, हमारी कामना है I आपके दृढ निश्चय से हम आश्वस्त भी हैं कि आपके नेतृत्व में भारतीय राष्ट्र का पुनर्निर्माण हो कर रहेगा, हमे दूसरा गाँधी मिल गया है I जन लोकपाल बिल को कानून का स्वरुप प्रदान करने हेतु आपने आमरण अनशन की भीष्म प्रतिज्ञा का जो कठिन संकल्प देश हित में ले रखा है उससे भयभीत और चिंतित भी हुए हैं हम ! बन्दे मातरम और भारत माता की जय- घोष से सारा भारतीय आकाश आज गुंजायमान है - धन्य हो गयी मात्रभूमि, धन्य हो गयी धरती !  
         सांसारिक सुखो का सर्वस्य त्याग कर देनेवाले श्री अन्ना - ७४ साल की आयु बीत जाने के पश्चात् भी देश के हित में, जन-जन के हित में - स्वतंत्र भारत के सरकारी तंत्रों में निचे से ऊपर तक व्याप्त घनघोर भ्रष्टाचार के कारण फैले जघन्य ब्यभिचार और भ्रस्टाचार को सुरक्षित - संरक्षित करने हेतु क्रूर अत्याचार से पीड़ित जन-जन के करुण क्रंदन, बेबस चीत्कार और असहनीय वेदना की पीड़ा से व्यथित हो बलिदानी अन्ना अपने जीवन की आहुति देने निकल पड़े हैं ! आज अन्ना भारत हो गए हैं - भारत अन्ना हो गया है !
         राम के आदर्श, पुरुषार्थ और धैर्य के साथ कृष्ण के ज्ञान, विवेक और शौर्य का अन्ना के व्यक्तित्व में अद्भुत संगम का विराट दर्शन कर रहे हैं हम - सम्पूर्ण भारतवर्ष आज अन्ना को ही परित्राण हेतु ताक रहा है ! दिनानुदिन कलुषित होता गौरवशाली भारतीय इतिहास को निष्कलंकित करने का लक्ष्य निर्धारित कर निश्चय ही इतिहास के स्वर्णिम पन्नो पर अंकित किये जाएंगे श्री अन्ना I
         पुन्ह्श्च, भारत के पुनुरूधार के आधुनिक स्वप्न द्रष्टा स्वामी विवेकानंद के प्रेरणादायी मार्गदर्शन के फलस्वरूप आजीवन ब्रह्मचर्य संकल्पित अन्ना ने - हलवाहे के हल से ; किसानो के मचानो से ; लोहारो के घन और हथौड़ो से ; कल कारखानों के मशीनों से ; हलवाई की मिठाई की दुकानों से ; दर्जी की सूई से ; विद्यालय-विश्वविद्यालय के बेंच और मेजों से ; अस्पतालों के आले से ; इंजीनियर और वैज्ञानिकों के तकनीक और प्रयोगशालाओं से ; मंदिर के घंटों और मस्जिदों के अजानों से ; पंडित और इमामों के पवित्र ग्रंथों से तथा फकीरों की कुटिया से राष्ट्र-निर्माण के लिए श्री अन्ना के हुंकारों पर जो भारत निकल पड़ा है वह निश्चय ही  श्रधांजलि होगी उस योद्धा-सन्यासी को जिसने आज से लगभग ११५ वर्ष पहले - गुलामी की जंजीरों में बंधा भारत के पुनर्निर्माण का खाका खींचा था - एक सपना देखा था बसुधैव -कुटुम्बकम के भारतीय आदर्श से विश्व की अगुवाई की I 
        बापू के आदर्शों का अक्षरशः अनुपालन से अनुशासित, लाठी के बदले हाथ में तिरंगा का सहारा लिए - शहीदे आजम सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव आदि बलिदानियों का अनंत राष्ट्रिय उत्साह ; चंद्रशेखर आजाद का अदम्य साहस और नेताजी सुभाष चन्द्र का दृढ संकल्प लेकर अन्ना ने एक जन-क्रांति नायक के रूप में भ्रस्टाचार मुक्त, ब्याभिचारमुक्त, अत्याचार मुक्त और शोषण मुक्त भारत की संरचना गढ़ने के संकल्पों के साथ ही जन - क्रांति के सिंहनाद से सम्पूर्ण आजादी पाने का लक्ष्य निर्धारित कर जन - जन को अन्ना बना दिया है अन्ना ने I   
         ऐसे समय में पूरा भारतवर्ष श्रधेय अन्ना हजारेजी को एक आशाभरी नेत्रों से निहार रहा है कि भारतमाता की गोद में आज भी अन्ना, अरविन्द और किरण जैसी लाल है जो इन देशी परन्तु विदेशियों से भी कहीं अधिक  क्रूर, अत्याचारी, निर्मम, शोषक, उत्पीड़क और रक्षक ही भक्षक की भूमिका में सरकारी तंत्रों पर अधिकार जमाये बैठे भ्रस्ट लोगो पर अंकुश लगाने हेतु पूर्ण शक्ति संपन्न जन - लोकपाल का सृजन कर देश को इस भ्रस्टाचार रुपी दानव से मुक्ति दिलाने में अपनी जान लगाने को तैयार है. हम सभी अपने हार्दिक एवं राष्ट्रिय भावनाओं से आदरणीय अन्ना को पूर्ण सम्मान एवं समर्थन देने को तैयार बैठे हैं इ

           अंततः जननी  जन्मभूमिश्च  स्वर्गादपि  गरीयसी !
                       वन्दे मातरम, भारतमाता की जय !